मूर्तिकला की पुरातन से आधुनिकतम प्रवृत्तियों के साक्षी, कला पण्डित, मूर्तिकार : लल्लू नारायण शर्मा



कला पंडित लल्लू नारायण शर्मा
  जयपुर मूर्तिकला के लिये विश्‍व प्रसिद्ध है। गुलाबी और सफेद संगमरमर की मूर्तियाँ जयपुर की विशिष्टता हैं। जयपुर का मूर्ति मोहल्ला अपने आप में दर्शनीय स्थल हैं। पत्थरों में टांकी-हथौड़ी की इनकार से वातावरण में कर्ण-प्रिय संगीत घोलते हुए प्राण प्रतिष्ठा करते हजारों कलाकार अपनी साधना में निमग्न केवल कला ही के लिये समर्पित है। न जाने कितने मूर्ति शिल्पी संजोये हैं गुलाबी नगरी जयपुर ने अपने आगोश में। मूर्तिकला के क्षेत्र में कलाकारों की संख्या निश्‍चित रूप से ज्यादा है। इनके नाम ढूंढ पाना तो इसलिए कठिन है कि मूर्ति शिल्प पर रचनाकार हस्ताक्षर करता ही कहां है। छैनी, हथौड़ी और शिला खण्डों से अपूर्व तादाम्य स्थापित कर उत्कीर्णन के इतिहास में रत्न जोड़कर इस परम्परा को समृद्ध किया है कला पंडित लल्लू नारायण शर्मा ने। धवल केशराशि, धवल धोती कुर्ता, चेहरे पर मृदु मुस्कान लिये अनन्य बहुमुखी प्रतिभा के धनी विख्‍यात शिल्पी लल्लूनारायण शर्मा का जन्म 24 जुलाई 1924 को जयपुर में मूर्तिकारों के परिवार में हुआ। इनके पुत्र राजस्थान स्कूल ऑफ़ आर्टस के मूर्तिकला के पूर्व व्याख्याता राजेन्द्र कुमार गौतम ने बताया कि इनके दादा राम चन्द्र गौतम, जो चन्द्रजी मिस्त्री के नाम से जाने जाते थेने अल्बर्ट हॉल के निर्माण में प्रधान शिल्पकार के रूप में काम किया था। चन्द्रजी मिस्त्री के चार लड़कों में सुन्दरलाल के पुत्र थे लल्लू नारायण। बाकी तीनों भाइयों के सन्ताने नहीं थी। 

इनकी माता चार वर्ष की उम्र में एवं पिता इनकी छह वर्ष की अवस्था में ही छोड़ कर चले बसे अत: इनके लालन-पालन की जिम्मेदारी मूर्तिकला के अद्वितीय कलाकार गुलाबचन्द ने ही उठाई। बीस के दशक में जब मूर्तिकला के क्षेत्र में रचनात्मक काम करने का साहस बहुत कम कलाकार ही जुटा पाते थे, तब गुलाबचन्द ने 1924 में अंग्रेजी सरकार द्वारा बेम्बले (इंग्लैण्ड) में आयोजित मूर्तिकला प्रदर्शनी में न केवल भागीदारी की बल्कि उनके मूर्ति शिल्प ढोला-मारू को पुरस्कृत भी किया गया। महाराजा स्कूल ऑफ़ आर्टस एण्ड क्राफ्ट्स में अध्यापक गुलाबचन्द ने इन्हें 12 साल की आयु में महाराजा स्कूल ऑफ़ आर्टस एण्ड क्राफ्ट्स में भर्ती करा दिया। यहां से मूर्तिकला, क्लेमाडलिंग एवं चित्रकला में डिप्लोमा प्राप्त किया। 

मूर्तिशिल्प को बारीकी से गढ़ते हुए मास्टर लल्लू नारायण शर्मा। 
इनके महाराजा स्कूल ऑफ़ आर्टस एण्ड क्राफ्ट्स में मूर्तिकला के टी. पी. मित्रा (तारा पदो मित्रा) एवं चित्रकला के रामगोपाल विजयवर्गीय कलागुरु रहे। टी.पी. मित्रा को हिरण्यमय राय चौधरी लाहौर के मेयो स्कूल ऑफ़ आर्ट से लाये थे और यहाँ परम्परागत मूर्तिकला के साथ क्ले मॉडलिंग की शुरूआत हुई। लल्लू नारायण अपने ताऊजी उस्ताद मालीराम से स्टेच्यू और जानवरों की कलाकृत्तियों की रचना सीखी। खजाने वालों के रास्तेजयपुर निवासी प्रसिद्ध मूर्तिकार सोहन लाल मण्डोलिया की पुत्री तारा देवी से इनका विवाह हुआ। 1946 में इन तीनों विधाओं में दीक्षित होने के बाद उन्होंने कला के शिक्षण की परम्परा को ही अपनाया। लल्लू नारायण ऐसे मास्टर नहीं थे जिन्हें कारीगरी का अभ्यास न हो। उन्होंने अपने बाबा मालीराम और चाचा गुलाबचन्द के कौशल को देखा ही नहीं था, पर उनसे उसका उत्तराधिकार पाया भी था। मालीराम तो जयपुर के शिल्प क्षेत्र में एक तरह से किवदंती-पुरुष थे। उनकी श्रेष्ठता के बारे में एक घटना प्रसिद्ध है। इलाहाबाद के अंग्रेजी प्रशासकों ने 1918 में एक प्रतिस्पर्धा आयोजित की थी जिसमें देश के सभी नामी शिल्पकार अपनी कृतियों के साथ उपस्थित हुए थे। तब यह देखने कि इनमें भी वस्तुत: श्रेष्ठ कौन है, प्रतिस्पर्धा में शामिल उन सब कलाकारों से अपने शिल्प गढ़ने के लिए कहा गया। उन्हें एक सप्ताह की अवधि दी गयी। इस अवधि के पूर्व ही मालीराम ने वहां संस्था के सचिव को अपने सामने बैठाकर सीधे व्यक्ति-शिल्प गढ़ा, जिसे देखकर सभी ने उनको प्रथम मान लिया। इसी कारण लोग उन्हें तब दूसरा माइकल एंजिलो कहा करते थे। 

कलावृत्त द्वारा फरवरी 2007 में आयोजित शिविर में कलाकारों को प्रमाण-पत्र देते हुए।
कला अध्ययन काल में ही लल्लू नारायण शर्मा को श्रेष्ठ मूर्तिकार का दर्जा मिल चुका था। महाराजा सवाई मानसिंह के समय एक यूरोपियन अतिथि आये थे। उन्होंने एक बैठे हुये पहलवान की मूर्ति बनवाने की इच्छा व्यक्त की। सामान्य रूप से इस प्रकार का कार्य कलागुरु टी.पी. मित्रा ही किया करते थे पर उस समय वे अवकाश पर लाहौर गये थे। लल्लू नारायण को अपना कौशल दिखाने का अवसर मिला। इन्होंने मृदा शिल्प का मॉडल बनाकर प्रस्तुत किया। शिल्प इतना अच्छा था कि अतिथि संतुष्ट हुए और महाराजा मानसिंह ने इस कौशल में अपने राज्य-गौरव को सुरक्षित पाया। सन् 1950 में महाराजा स्कूल ऑफ़ आर्ट्स एण्ड क्राफ्ट्स (अब राजस्थान स्कूल ऑफ़ आर्ट्स) में ही शिक्षण कार्य आरम्भ किया और सन् 1979 में वहां से सेवा निवृत्त हुये। इस प्रकार ये निरन्तर मूर्तिकला की साधना करते रहे थे। शैली की दक्षता, अभिराम आकृति के निर्माण और भावों को व्यक्त करने में मास्टर लल्लू नारायण का कोई सानी नहीं। इनकी मूर्तियां शक्ति और भाव की अभिव्यक्ति में बेजोड़ है मानों कलाकार की संवेदना ने पत्थर में जान डाल दी है। लल्लू नारायण के मूर्ति शिल्प प्राय: शरीर रचनाओं के परिशुद्ध एवं आनुपातिक अंकन व मानवीय भावों के सही-सही निरूपण की कसौटी पर एकदम खरे उतरते हैं। उनका कोई भी मूर्ति शिल्प बेडौल नजर नहीं आता। भावों की गहराई रचना-सामग्री (पत्थर) को एकदम गौण बना देती है। प्रेक्षक का सीधा ध्यान शिल्प में स्थापित मनोभावों की ओर जाता हैं। 

अपने शिष्य एवं कलावृत्त के संस्थापक डॉ सुमहेन्द्र के साथ चूरमे में मीठा चेक करते हुए।
शिल्प सृजन में इन्होंने क‌ई सोपान चढ़े हैं। पुरस्कारों की लम्बी श्रृंखला में इन्हें 1939 में जलदाय विभाग से, 1950 में महाराज कुमार विजयनगर से 1957 में राजस्थान हस्तकला कौशल के लिए प्रमाण-पत्र प्राप्त हुए। साथ ही राजस्थान ललित कला अकादमी से 1962 व शिक्षक सम्मान समारोह 1975-76 में पुरस्कृत हुए। अॉल इण्डिया फाईन आर्टस् एण्ड क्राफ्ट्स सोसायटी से 1988 में वेटर्न आर्टिस्ट अवार्ड से सम्मानित इनको युवा सर्जक मंच कलावृत संस्था द्वारा भी 1989 में सम्मानित किया गया। जिला स्तरीय हस्ताकला प्रतियोगिता में सन् 1991-92 में, जयपुर समारोह समिति द्वारा 1992 में, राष्ट्रीय दक्षता पुरस्कार 1993 में, गणतंत्र दिवस में राज्य स्तरीय समारोह में राज्यपाल द्वारा 26 जनवरी, 2002 को महाराजा सवाई मानसिंह (द्वितीय) संग्रहालय, सिटी पैलेस, जयपुर द्वारा 2004 में सवाई जगत सिंह अवार्ड़ से सम्मानित हुए। देश के कोने-कोने में इनके बनाये मूर्ति शिल्प इनकी ख्याति बिखेर रहे हैं। इनकी रचनाएँ विभिन्न सार्वजनिक स्थलों पर स्थापित जनमानस में जहाँ व्यक्ति विशेष के आदर्शों को बिम्बित कर रही है वहीं मूर्तिकला में सृजन और सौंदर्य के मौलिक तत्वों की गवाही देते हैं । इनमें बनारस में कस्तूरबा गांधी की 6 फीट की प्रतिमा, इटावा में लालबहादुर शास्त्री की 6 फीट ऊँची प्रतिमा, आगरा में लालबहादुर शास्त्री की 6 फीट ऊँची प्रतिमा, सवाई माधोपुर में महात्मा गांधी की 6 फीट ऊँची प्रतिमा दर्शनीय है। बनारस में इनके द्वारा सर्जित महात्मा गांधी और कस्तूरबा मूर्तियों का उद्‍घाटन सन् 1950 में उत्तरप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री गोविन्द बल्लभ पंत ने किया था। जीवन की सबसे बड़ी उत्कीर्ण आकृति आगरा के विक्टोरिया पार्क में स्थापित मोतीलाल नेहरू की 13 फीट ऊँची प्रतिमा है। इस प्रतिमा के मॉडल का अनुमोदन स्वयं पंडित जवाहर लाल नेहरू और विजय लक्ष्मी पंडित ने किया था । इंग्लैण्ड की महारानी विक्टोरिया की प्रतिमा को हटा कर लगाई गयी यह प्रतिमा लोगों में न केवल राष्ट्रीयता की भावना का संचार करती है बल्कि एक मूर्तीकार के जीवट और रचना कौशल का भी परिचय कराती है। नवलगढ़ में गांधीजी और जयपुर के दुर्लभजी अस्पताल में दुर्लभजी की मूर्ति को जनसामान्य नित्य देखता है और सराहता है। इनके द्वारा क‌ई तरह की मूर्तियां बनाईं ग‌ई जिनमें परमात्मा के विग्रह की मूर्तियां, मृदा मॉडल, रिलीफ, प्लास्टर ऑफ पैरिस तथा सजावटी वस्तुएं शामिल हैं पर व्यक्ति शिल्प या लाइफ पोट्रेट के लिये लल्लू नारायण विशेष रूप से पहचाने जाते हैं। इन्होंने इतनी अधिक संख्या में मूर्तियां बनाई थी कि उन्हें खुद पता नहीं था कि उन्होंने अब तक कुल कितनी मूर्तियां तराशी हैं। स्वभाव से स्वाभिमानी पर सौम्य और सरल ठेठ जयपुरी शैली में जीते जीवन्त कलाकार व्यक्ति की छवि को उजागर करने में सक्षम इन्होंने मकराना के केवल श्‍वेत संगमरमर में ही काम नहीं किया अपितु काले और गुलाबी पत्थर को भी साधिकार तराशा और रूपायित किया है। यथार्थपरक मूर्ति शिल्पों में ग्रामीण जन-जीवन की झांकी, विभिन्न खेलों में रत बच्चों के संयोजन भी उनके विषय रहे। इसके लिए उन्होंने संगमरमर और काले पत्थर दोनों का उपयोग किया। माध्यम विशेष की क्षमता और संभावनाओं को उन्होंने विस्तार दिया। काले पत्थर में जहां भय, क्रोध और अवसाद जैसे मनोभावों को निरूपित किया, वहीं सफेद संगमरमर को चेहरे की लावण्यता, शांति-सौम्यता और वात्सल्य भाव के लिए इस्तेमाल किया है। राजस्थान और विशेष रूप से जयपुर की‌ परम्परा जिसमें पत्थर को पूज्य बनाया जाता है-उसमें कला का पुट देकर दर्शनीय बनाने वाले लल्लू नारायण शर्मा का देहावसान 5 नवम्बर, 2011 को हुआ।

लेखक : राकेश जैन 
(कोटखावदा)
फ़ोटो : कलावृत्त के संकलन एवं लल्लू जी के पुत्र राजेन्द्र कुमार गौतम द्वारा

Comments

  1. लल्लू नारायण जी की फोटोज लगाकर पोस्ट में जान डाल दी आपने ।

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    1. जी, फ़ोटो से अच्छा लगता है और लल्लू नारायण की मेरे पिता के गुरु भी है तो फ़ोटो उपलब्ध थी इस लिए आपके आलेख के साथ लगा दी।

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