राजस्थान की संस्कृति, साहित्य को अपनी कल्पना और कौशल से साकार किया शब्द संस्कारित चित्रकार शिक्षक : कन्हैयालाल वर्मा
यह अपने प्रिय से बिछुड़ने की पीड़ा ही तो है जो अमर कविताओं और गीतों को जन्म देती है। वियोग की पीड़ा ही ऐसी कालजयी रचनाओं के जन्म से पूर्व की प्रसव पीड़ा का कार्य करती है। यह पीड़ा ही वह मूल्य है जो अमर कृतियों के रचयिताओं को अपने निजी जीवन में चुकाना पड़ता है। ऐसे ही एक विरही की घनीभूत पीड़ा से उद्भूत भावों का सागर है महाकवि कालीदास द्वारा संस्कृत में रचित खंड-काव्य ‘मेघदूतम’ और उस काव्य को आधार बनाकर सृजित चित्रों की एक श्रृंखला प्रस्तुत है संप्रति समीक्षित पुस्तक ‘मेघदूत-चित्रण’ में। ‘मेघदूत-चित्रण’ एक विलक्षण पुस्तक है जिसमें विरह-वेदना दो पृथक-पृथक स्वरूपों में उपस्थित है – शब्दों में एवं चित्रों में। इसके सृजक हैं पारंपरिक राजस्थानी शैली में बनाए गए अपने चित्रों के लिए देश-विदेश में ख्याति प्राप्त मूर्धन्य भारतीय चित्रकार कन्हैयालाल वर्मा। मूल रूप से एक शिक्षक तथा अपना सम्पूर्ण जीवन चित्रकला की साधना को समर्पित करने वाले कन्हैयालाल वर्मा ने महाकवि के अमर काव्य पर चौंतीस चित्रों की एक श्रृंखला तैयार की है जो समीक्षित पुस्तक में इस प्रकार प्रस्तुत की गई है कि दाईं ओर के पृष्ठ पर चित्र है जबकि बाईं ओर के पृष्ठ पर उस चित्र से संबंधित संस्कृत का मूल श्लोक, उसकी स्वयं चित्रकार द्वारा हिन्दी भाषा में की गई सुंदर व्याख्या एवं उस व्याख्या का अंग्रेज़ी अनुवाद दिया गया है। अपने ढंग की यह एकमात्र पुस्तक साहित्य-प्रेमियों तथा कला-प्रेमियों के हृदय को विजय करने में पूरी तरह सक्षम है। राजस्थान के ख्यातनाम चित्रकार कन्हैयालाल वर्मा का जन्म देश की प्रसिद्ध खारे पानी की झील,संत दादूदयाल और हजरत ख्वाजा हुसामुद्दीन चिश्ती जिगर सोख्ता की तपस्थली सांभर में उस समय के प्रसिद्ध आराइश शिल्पी तनसुख उस्ता के यहाँ 7 मार्च, 1943 को हुआ था।
कन्हैयालाल वर्मा के पुत्र केन्द्रीय विद्यालय में चित्रकला के शिक्षक कमल कुमार ने बताया कि इनकी माता का नाम धापूदेवी था। क्षेत्रीय खेल-तमाशे, रामलीला, मेले और जूलूस की लोक संस्कृति ने उनके कलामन को बाल्यकाल से ही गहरे से प्रभावित किया था। दो-तीन मिट्टी के खिलौने कन्हैया के साथी हुआ करते थे। बचपन में ये अक्सर चूल्हे में से कोयला लेकर आँगन पर आडी-तिरछी रेखाएँ खींचा करते थे। इन आडी-तिरछी रेखाओं को देखकर इनके पिता इन्हें प्रोत्साहित किया करते थे । बालमन की सहज अभिव्यक्ति को पहचान कर इनके पिता ने इनके लिए घर की एक दीवार निश्चित कर कहा कि यहां-वहां चित्र बनाने के बजाय इस दिवार पर ही चित्र बनाया कर । बालक कन्हैया के बाल कलाकार का चित्र-फलक अथवा चित्रकला की अभ्यास-पुस्तिका वह दीवार ही थी। बालक कन्हैया दीवार पर दिन में चित्र बनाता और शाम को जब पिताजी आते तो चित्र को देखकर प्रसन्नता के कुछ शब्द कहते और कन्हैया के अगले दिन चित्र बनाने के लिए दीवार की पुताई कर देते। कन्हैया के चित्रण का माध्यम प्रारम्भ में तो कोयला ही रहा लेकिन शीघ्र ही इसके साथ-साथ हिरमिच, रामराज, नील, सिन्दूर, हींगलू, काजल, सीलू और खड़िया जैसे रंगों ने अपना स्थान बना लिया। सांभर के स्कूल के गुरूजनों ने इनकी कला में रुचि एवं प्रतिभा को पहचान कर आगे बढ़ाया। पन्द्रह साल के कन्हैयालाल जब आठवीं कक्षा में थे तब उस समय की शीर्षस्थ पत्रिका धर्मयुग और साप्ताहिक हिन्दुस्तान में चित्रकारों की जीवनी पढ़ते और उनके बनाये चित्रों को देखा करते थे। छोटी उम्र में ही इनकी शादी नरैना निवासी सूरजमल की पुत्री तीजादेवी से हो गया था। दसवीं कक्षा पास करने के बाद ये कला का विधिवत अध्ययन नहीं कर सके। तब न तो कोई गुरू ही मिला और न कला का विद्यालय ही। आर्थिक परिस्थितियों की मजबूरी ने इनकी जे.जे.स्कूल ऑफ आर्ट अथवा राजस्थान स्कूल ऑफ आर्ट में अध्ययन की जिज्ञासा को फलीभूत नहीं होने दिया। कलाशाला से बढ़कर जीवनशाला भी होती है, जहाँ बैठकर कन्हैयालाल ने कला का उच्च अध्ययन किया । प्रकृति ही इनकी गुरू बन गई जिसने अपने हाथों से इन्हें सँवारा। दसवीं कक्षा उत्तीर्ण करने के बाद शिक्षक प्रशिक्षण (एस.टी.सी.) प्राप्त कर 1964 में ये दूदू तहसील के साँखूण गांव के सरकारी स्कूल में अध्यापक बन गये। परिवार का पालन और कला की साधना दोनों ऐसी विपरीत परिस्थितियाँ हैं जिनकी एकता असम्भव तो नहीं पर कठिन अवश्य हैं। इसी वजह से कन्हैयालाल प्रारम्भिक जीवन के बहुत ही संघर्षमय होने के बावजूद निराश नहीं हुए। उन दिनों शादी-विवाह के अवसर पर माँडणे मांडना और रामलीला के पर्दे रंगने का काम ये बड़े चाव से किया करते थे। साथ ही उच्च शिक्षा का अध्ययन भी करते रहे। इन्होंने चित्रकला विषय के साथ राजस्थान विश्वविद्यालय से स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण की। वर्मा पर लघु चित्रों का बहुत प्रभाव रहा है। इन्होंने पारम्परिक विषयों को टुकड़ों में विभक्त कर नवीन संयोजन में सम्बद्ध किया है । एक ही चित्र में अनेकानेक घटनाओं का प्रदर्शन उनकी विशेषता रही है। नायिकाभेद, कालिदास के काव्यों पर आधारित विषयों का चयन कर एक काल्पनिक लोक की रचना की थी। ढोलामारू की प्रेम कहानी और चूण्डावत सरदार और हाडीरानी की वीरतापूर्ण आख्यान की भी रचनाएँ की थी। इनके चित्रों के स्थापत्य में छतरियां, गवाक्ष, जालियां, कहीं मालवा शैली से तो कहीं मेवाड़ शैली से उद्धृत की होती हैं। रागिनी देवगंधार को नारी रूप में वीणा लिये वृक्षों के वृत्ताकार झुरमुट में दर्शाया है तथा आकृति को उभार देने हेतु पृष्ठभूमि में लाल रंग का प्रयोग किया हैं। ऊपर तीन घोड़े बनाये हैं जो सूर्य के प्रतीक जान पड़ते हैं। कन्हैयालाल वर्मा की अपनी अलग शैलीगत विशेषताएँ हैं। उनके चित्रों में चित्रित जाली-झरोखे और छतरियाँ जयपुर की वास्तुकला पर आधारित है तथा पहाड़, टीले, आम के वृक्ष, केले के पेड़, चक्री वाले बादल राजस्थानी शैली से प्रभावित हैं किन्तु नख-शिख सौन्दर्य में उन्नत ललाट, तीखी नाक, पतले अधर, नुकीली ठुड्डी और आम्र-पत्र सी आँखें इनकी निजी विशेषता है । चित्रों को उभारने के लिए ये लाइनदार परदाज का प्रयोग करते हैं तथा लाल रंग के आधिक्य को वे इस तरह संतुलित करते हैं कि वह अपनी अखरने वाली प्रकृति को छोड़कर जीवन रस को अनुभूति से आनंदित करने लगता है । लाल रंग के इस आनंद में न केवल वे स्वयं डूबते थे अपितु दर्शकों को भी उसकी अनुभूति करवाते थे। कन्हैयालाल ने छ: बार राजस्थान ललित कला अकादमी पुरस्कार (पाँच बार राज्य स्तर पर एवं एक बार अखिल भारतीय स्तर पर) तथा राष्ट्रीय कालीदास अकादमी से चार बार पुरस्कार प्राप्त किये हैं। आईफेक्स सहित अन्य संस्थानों से पुरस्कृत होने के साथ ही इनकी कलाकृतियों का प्रदर्शन राज्य, राष्ट्र एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी हुआ है। राज्य एवं राष्ट्र स्तर के अनेक कला शिविरों में सक्रिय भागीदारी के साथ नौ बार इनकी कृतियों की एकल प्रदर्शनी विभिन्न स्थानों पर लग चुकी थी। चित्र से सम्बन्धित कवित्त चित्र के ऊपर अथवा नीचे लिख देना भी इनकी पहचान है। इनकी रंग योजना, संयोजन और कथानक का आधार स्वत: बतला देता है कि कृति अमुक कलाकार की है।राजस्थानी रागरंग, जनजीवन, ऋतु-त्यौहार, बारहमासा, राग-रागनियां, यहां की वीररसपूर्ण गाथाओं, प्रेमाख्यानों, धार्मिक और साहित्यिक सभी विषयों को इन्होंने अपनी कलाकृतियों में नवीनता तथा निजता के साथ रूपायित किया है।
इनका चित्रकार 1964 से अपने कलाकर्म में प्रवृत्त हुआ और 1973 तक राजस्थान के सामान्य विषयों के पुनरांकन तक सीमित रहा परन्तु इनकी रचनात्मक रुचि ने इस सीमित दायरे में बंधे रहना पसन्द नहीं किया तथा वृहद् और विविध विषयों को कृतिबद्ध करने का आग्रह किया। वर्मा ने इन विषयों का अध्ययन के माध्यम से साक्षात्कार किया और उनके शब्दों के अनुकूल आकार रचे। 1974 से 1984 का समय वर्मा का सागर को गागर में भरने का प्रयत्न काल था। कला जगत में इनके द्वारा सृजित मेघदूत पर आधारित चित्र-श्रृंखला बहुत ही लोकप्रिय रही है। मेघदूत के चित्रों पर आधारित कन्हैयालाल वर्मा का स्लाइड शो एवं वार्ता एक अनुपम आनन्द की अनुभूति कराते हैं। इन चित्रों की शैली में सर्वत्र भारतीयता विद्यमान है। इसका एकमात्र कारण यह हो सकता है कि वर्मा सदैव अपनी जमीन से जुड़े रहे। परम्परा के आँचल में अत्यन्त निष्ठा और लगन से बनाई गई ये कृतियाँ जीवनवाहिनी ऊर्जा को धारण करने की उल्लेखनीय क्षमता रखती है। शिक्षा एवं कला के क्षेत्र में उत्कृष्ट सेवाओं के लिए राज्य स्तर पर शिक्षक दिवस 5 सितम्बर, 1999 को राज्यपाल से एवं भारत के राष्ट्रपति से 5 सितम्बर, 2000 को राष्ट्र स्तर पर सम्मानित हो चुके हैं ।
कन्हैयालाल वर्मा को प्रारम्भ से ही प्रोफेसर डॉ. शम्भुसिंह मनोहर एवं शिक्षाविद् आर.एन.काबरा का स्नेह एवं मार्गदर्शन प्राप्त हुआ है। एक बार पद्मश्री कृपालसिंह शेखावत अनेक कलाकारों के साथ अगस्त 1997 में सांभर देवयानी सरोवर पर गोठ करने के लिए आए थे। सभी लोग कुछ समय के लिए कन्हैयालाल वर्मा के घर आए थे। बड़ा ही स्नेहिल और मोदमय वातावरण में ऐसा लग रहा था जैसे कला की सुरसरि प्रवाहित हो रही हो। इसी समय कृपालसिंह शेखावत ने वर्मा की डायरी में लिखा था -
सांभर शहर सुहावणो, ईऽऽम खूब नमक ।
कन्हैयालालजी देखल्यो, थाँऽऽक मुँह चमक ।।
73 वर्ष की उम्र में 15 अक्टूबर, 2015 को अपनी तूलिका से राजस्थानी कला को नए आयाम देने वाले चित्रकार कन्हैयालाल वर्मा का देहावसान हो गया।
लेखक : राकेश जैन कोटखावदा
Very educative post about writing of Kalidasa or art work on megdut granth in painting ting form from Sir Kanahiya lal verma ji ..
ReplyDeleteThanks for share this important post for my art education..
Regards
Yogendra Kumar purohit
Master of fine arts
Bikaner 'India
Thanks Yogendra ji.
DeleteThe culture of Rajasthan was embodied in its lifelike portrayal, the great painter Kanhyalalji Verma, thank you very much to you, Senior Artist Sandeep Sumhendraji, who gave me information about these.
ReplyDeleteThanks
Deleteबहुत ही प्रेरणादायक और निरन्तर प्रयास के लिये हमे आगे बढते रहने का पाठ पढाती चित्रकार कन्हैया लाल जी की जीवनी और कला बहुत सुंदर हैं।हमें साझा करने के लिए आपका बहुत आभार।
ReplyDeleteसादर,
ममता जलुथरिया
चित्रकार
जयपुर,राजस्थान
धन्यवाद
DeleteBhaut khubsurat article.....
ReplyDeleteThanks
Deleteवरिष्ठ चित्रकार के कलात्मक जीवन विचार में संग्रहित रंग, रुप और शब्दों से राजस्थान की कला संस्कृति का निकटता से दर्शन ..... सुंदर सुंदर अतिसुंदर !!!
ReplyDeleteकलात्मक जीवन विचार राजस्थान की कला और संस्कृति का निकटता से हमें दर्शन कराया बहुत ही सुंदर लेख
ReplyDeleteमहत्वपूर्ण एवं सुंदर आलेख एवं तथ्यात्मक जानकारी के लिए कलावृत का आभार
ReplyDeletereally very nice post. A dedication against work is admirable. it shows depth intensity about work. I really impressed with this post and would ask to new generation to learn , love your passion.
ReplyDeleteHatsoff to shree verma ji
Devendra singh
Thanks 👍
DeleteNicely written article
ReplyDeleteThanks
DeleteVery much informative. Thank you for sharing with us.
ReplyDeleteJaspreet
Thankyou ji 👍
Deleteइस अति प्रभावी लेख हेतु आपका कोटि कोटि धन्यवाद ।
ReplyDeleteपरम पूजनीय गुरुदेव श्रीयुत कन्हैयालाल जी वर्मा को कोटि कोटि प्रणाम, नमन । मुझ पर ईश्वर की विशेष अनुकम्पा रही कि मुझे आप गुरु के रूप में मिले । आपका वरदहस्त सदैव मुझ पर रहा है । आपका शिष्य होने के नाते मुझे आपके साथ अमूल्य समय व्यतीत करने का सुअवसर प्राप्त हुआ, जिससे कि मैं आपके व्यक्तित्व के उन अनछुए पहलुओं को समझ सकने में सफल रहा जिन्हें शायद ही कोई और समझ सका होगा । इसी आधार पर मैं पूर्ण विश्वास से कहता हूँ कि आप जैसा कोई नहीं गुरुवर । एक ख़ास वाकया मुझे याद आता है जब रतलाम में पहली बार आप मेघदूतम पर स्वरचित चित्रों की स्लाइड्स के सहारे व्याख्यान देने गए थे । आयोजकों द्वारा विशेष आग्रह किया गया कि गुरुवर कृपया आप अपना व्याख्यान ज्यादा से ज्यादा 45 मिनटों में समेट लीजियेगा क्यों कि उनके अनुसार बड़ी संख्या में श्रोतागण उपस्थित होने वाले थे लेकिन उनमें साहित्यिक समझ रखने वाले ना के बराबर थे। अतएव आयोजकों को डर सता रहा था कि श्रोतागण व्याख्यान की अवधि अधिक होने से उकता कर बीच में ही उठकर ना चले जाएं। किन्तु आपने असमर्थता ज़ाहिर करते हुए कम से कम 2 घंटे लेने की इच्छा जताई थी । साथ ही अपनी और से व्याख्यान कम से कम समय में पूरा करने की हर संभव कोशिश का आश्वासन भी दिया था । व्याख्यान का शुभारंभ हुआ, कक्ष श्रोताओं से खचाखच भरा हुआ था । संक्षेप में कहुँ तो गुरुदेव ने अपनी कृतियों के सहारे विरह वर्णन से ऐसा समां बाँधा कि बीच व्याख्यान हर किसी की आँखें आँसुओं से सराबोर थी । हर कोई लगभग बेसुध अवस्था में था, मानो सभी लोग पलक झपकना भी भूल चुके थे । जब गुरुजी ने अपने व्याख्यान का समापन किया, तब तक करीबन 3 घंटे बीत चुके थे । इस दरमियान ना कोई हिला, ना कोई डुला । मैंने उक्त वाकये का शब्दों के सहारे जो वर्णन किया है, ये उस दिन, उस समय उस दिव्य वातावरण के बखान के साथ न्याय करने में पूर्णतः सक्षम नहीं । शायद हर किसी को तो इस बखान पर विश्वास भी नहीं हो लेकिन ये पूर्णतयः सत्य है । ऐसा सम्भव कर पाना केवल गुरुदेव श्री कन्हैयालाल वर्मा जी के ही वश में था, ये भी सत्य है ।
आज आप भौतिक रूप से हमारे बीच नहीं हैं लेकिन आप हमारे हृदय पटल पर सदैव विराजित रहेंगे । आपको बारम्बार प्रणाम, कोटि कोटि नमन । 🙏
Thankyou very much Vijay ji. गुरुदेव से आपका व्यक्तिगत जुड़ाव आपके विचारों में स्पष्ट प्रतीत होता है, भाग्यशाली होते है जिन्हें ऐसे गुरु का सानिध्य प्राप्त होता है।
Deleteप्रेरणादायक आलेख...
ReplyDeleteThankyou very much 👍👍
Deleteबहुत ही सराहनीय आलेख
ReplyDeletethanks
Deletebahut achcha lekh
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