भारत की आजादी की स्वर्ण जयंती पर प्रो. रणवीर सिंह बिष्ट को दिया गया 'कला सेवा' का पुरस्कार उनको दिए गए सम्मानों की अंतिम कड़ी थीl आज जब श्री बिष्ट दिवंगत (25 सितम्बर, 1998) हो गए हैं तो लगता है कि शायद यह नियति का एक संकेत था - अब तुम्हारा काम पूरा हुआ विश्राम करोl
अपने घर लैंसडाउन (गढ़वाल) से वे 50 वर्ष पूर्व सन् 1948 में कला की शिक्षा लेने लखनऊ आये थे और फिर वे लखनऊ के ही होकर रह गएl यहीं के कला महाविद्यालय से उन्होंने कला की अपनी शिक्षा वर्ष 1954 में ही पूरी की थीं और फिर दो वर्ष के अंतराल के बाद वहीं अध्यापक तथा सन 1968 में वहीं प्रधानाचार्य हो गए जहां से सन् 1989 में वे सेवानिवृत हुए l इसी बीच सन् 1973 में महाविद्यालय के लखनऊ विश्विद्यालय में विलीन हो जाने पर वे ललित कला संकाय के डीन भी रहेl इस प्रकार कोई 33 वर्षो तक उन्होंने कला महाविद्यालय की सेवा कीl ... एक लम्बा समयl

उनके व्यक्तित्व में एक विशेषता थी कि वह
विविधता भरा था - एक कुशल कलाकार, एक कुशल अध्यापक, एक कुशल प्रशासकl वहीं दूर दृष्टि के साथ अपनी शर्तो पर काम करना उन्हें अधिक पसंद थाl यही कारण था कि जहां उनके असंख्य प्रशंषक रहे
वहीं उनके विरोधी भी रहेl ऐसा होता है, स्वभाविक रूप सेl इसमें अन्यथा कुछ भी नहींl बावजूद इसके उनमें विरोधी परिस्थितियों से
उभरने का अदम्य साहस थाl और शायद यही उनकी सफलता का राज भीl तभी तो वे असित कुमार हालदार, एल.एम. सेन, सुधीर रंजन
खास्तगीर आदि कला महाविद्यालय के पूर्व कलाकार - प्रधानाचार्यो की कोटि में
स्थापित हुएl श्री खास्तगीर के बाद वे दूसरे कलाकार थे
जिन्हें भारत सरकार ने पद्मश्री के सम्मान से सम्मानित किया थाl श्री खास्तगीर का कार्यकाल (1953-1963) कला महाविद्यालय का स्वर्ण काल माना
जाता हैंl उन्हीं के
कार्यकाल में विद्यालय का पुनर्गठन हुआ जिसके चलते श्री बिष्ट की नियुक्ति कला
महाविद्यालय में सन् 1953 में एक अध्यापक के रूप में हुई थीl श्री बिष्ट के जीवन का यह एक महत्वपूर्ण मोड़ था
जिसने उन्हें एक दिशा दी, एक मंच दियाl स्वयं वे भी इसे
स्वीकार करते थे कि - 'कला महाविद्यालय' में अपनी शिक्षा
पूरी करने के बाद पुनः उसी विद्यालय में शिक्षक के रूप में प्रवेश पाना मेरे लिए
सौभाग्यशाली रहा, जिसने मेरे जीवन
उदेश्य की पूर्ति को सरल बना दियाl उस समय श्री खास्तगीर ने भी यह नहीं सोचा होगा कि एक दिन यह
युवा कलाकार इस विद्यालय का पर्याय बन जायेगाl यह अलग बात है कि श्री बिष्ट हमारे बीच नहीं
रहे परन्तु वे हैं और सदा रहेंगेl
हमारे बीच एक इतिहास रचकरl

इस इतिहास की शुरुआत 4 अक्टूबर, 1928 को लैंसडाउन में उनके जन्म के साथ शुरू हुई थीl माँ रामचंद्री और पिता कल्याण सिंह बिष्ट का यह पुत्र धीरे-धीरे हिमालय के
नैसर्गिक वातावरण में बड़ा होने लगाl इस वातावरण के साथ वहां रह रहे कुछ आंग्ल परिवारों के पुरुष
और महिलाओं के स्थल विशेष पर बैठाकर चित्र रचना करने ने बालक रणवीर को सबसे अधिक
प्रभावित किया थाl वह इन लोगों को उत्सुकता से चित्र बनाते देखते
और धीरे-धीरे स्वयं भी चित्र बनाने के लिए बेचैन रहने लगेl फिर घर से स्कूल के रास्तों में जगह-जगह वह चित्र बनाने लगेl इस तरह लैंसडाउन से कोई तीन किलोमीटर दूर स्थित जेहरीखाल के उनके स्कूल का
रास्ता कब कट जाता, पता ही नहीं चलता
और कभी-कभी तो वे स्कूल भी न पहुंचतेl
डांट पड़ती, पर यह क्रम चलता रहा और उनके कलाकार बनने की
चाह बलवती होती गयीl घर वालों की
कोशिशें बेकार रहीं, क्योंकि उनके
परिवार में जमींदारी संभालने या सेना में भर्ती होने की परंपरा रही थीl
अंततः हाईस्कूल
करने के बाद उन्हें लखनऊ आने की इजाजत मिल गयी और यहां के कला महाविद्यालय में
व्यावसायिक कला विभाग में उन्हें प्रवेश भी मिल गया परन्तु जो सोचकर वह यहां आये
थे ऐसा कुछ उन्हें लगा नहींl अतः अगले वर्ष कला अध्यापक प्रशिक्षण विभाग और फिर उसे पूरा करके ललित कला
विभाग से डिप्लोमा लियाl इस प्रकार सन् 1954 में उनकी कला शिक्षा पूरी हुईl यह वह समय था जब कला महाविद्यालय में बंगाल स्कूल का प्रभाव
ज्यादा थाl 'वाश' पद्धति से चित्र रचना करने का प्रचलन थाl इसी कारण श्री बिष्ट के पहले के काम इसी पद्धति में बने लेकिन तत्कालीन
प्राचार्य एल.एम. सेन ने इस पद्धति को धीरे-धीरे बदलाl वे स्वयं भी कुशल चित्रकार थेl
सेन के चित्रों में
विशेषत:, सैरा चित्रों में,
प्रकाश-छाया और 'हार्ड लाइट्स' का सुन्दर प्रयोग होता थाl जिसका प्रभाव श्री बिष्ट पर भी पड़ाl
इनके अतिरिक्त एक अन्य
अध्यापक वीरेश्वर सेन से भी ये प्रभावित हुए परन्तु सबसे अधिक अपने वरिष्ठ साथियों
विशेषत: फ्रैंक वेस्ली को वे ज्यादा मानते थेl काम सिखने की लगन में वे उनके आगे-पीछे लगे
रहते थे और धीरे-धीरे छात्र-जीवन में ही 'जल रंगो के सैरा चित्रकार' के रूप में उनकी पहचान बनने लगीl

ललित कला अकादमी,
नयी दिल्ली द्वारा आयोजित
पहली राष्ट्रीय कला प्रदर्शनी (1954) में श्री बिष्ट के जल रंगीय तीन चित्र प्रदर्शित हुए थेl 'स्टेट्समेन' के सुपरिचित कला समीक्षक चार्ल्स फाबरी ने उनके
इन चित्रों की आलोचना की थीl जिसे श्री बिष्ट ने एक चुनौती के रूप में
स्वीकारा थाl
उन्होंने देश में
प्रचलित विभिन्न कला-धाराओं पर नजर डालना शुरू कियाl किस तरह देश में दूसरे कलाकार काम कर रहे हैं, इसको समझा और स्वतंत्र भारत के बदलते परिवेश
में आधुनिक कला धारा के प्रयोगवादी दृष्टिकोण की उनमे यहीं से शुरूआत हुईl अकादमी के गठन से भी कला-क्षेत्र में परिवर्तन आने लगे थेl कला की प्रचलित धारा में परिवर्तन इसका लक्षण
थाl
इसी बीच, उन्होंने सूचना विभाग में कलाकार की नौकरी कर
ली और फिर साल अंदर ही कला महाविद्यालय के कला अध्यापक प्रशिक्षण विभाग में उनकी
नियुक्ति श्री खास्तगीर ने कर लीl
उस समय सर्वश्री मदन लाल
नागर और अवतार सिंह पंवार जैसे कलाकार भी विद्यालय परिवार में आ चुके थेl इन लोगों के साथ श्री खास्तगीर भी कला चर्चाओं में शामिल होते और इस प्रकार इन
युवा कलाकारों को वे प्रोत्साहित करते थेl मुझें याद है कि कला अध्यापक प्रशिक्षण विभाग का उनका समय बहुत महत्वपूर्ण थाl
जिसमे उन्होंने जमकर काम
किया थाl इससे अलग नियमित
काम करना उनकी आदत में शुमार थाl लेकिन वह उनको स्थापित करने का एक महत्वपूर्ण काल (1953 से 1968) थाl कलाकार को कला का वातावरण मिल जाये तो वह उस पौधे कि भांति
बढ़ता है जिसको उचित खाद-पानी आदि मिल जाता हैl

उन्हें रात में
घूमने का शौक थाl हजरतगंज के कॉफ़ी हाउस समेत अन्य होटलों में वे
बैठतेl अभिजात्य और
बुद्धिजीवी वर्ग से चर्चा होती और फिर घूमतेl इतना कि कभी-कभी सवेरा हो जाताl
अँधेरी और चांदनी रातें,
सुनसान सड़कें, टिमटिमाते बल्ब, मकानों की छत से आता प्रकाश आदि-आदिl पहाड़ो से हटकर शहर के ये नये बिम्ब भी कलाकार
के मस्तिष्क में बनते जा रहे थेl फलतः सन् 1960 के आते-आते उन्होंने 'नाईट' श्रृंखला की शुरुआत की और जल रंगो के बजाय तैल रंगो में
ज्यादा रचना करने लगे थे l कुछ अर्थों में श्री बिष्ट की प्रवर्ति प्रभाववादी चित्रकार देगां से मेल खाने
लगी थीl देगां की मान्यता
की - 'कलाकृति में
प्रकृति का अनुकरण मात्र नहीं होना चाहिए क्योंकि वह कलाकार की कल्पना का विलास हैl वे स्मृति से चित्रण करना सबसे अच्छा मानते थे क्योंकि
कल्पना की सहायता से कलाकृति को उदात्त रूप प्रदान किया जा सकता हैl इसमें चित्रकार को वस्तु के नैसर्गिक रूप की हूबहू नकल करने का प्रलोभन नहीं
होता और कलाकार की प्रतिभा की सुरक्षा हो जाती हैl

बिष्ट स्वयं भी
पहले रेखांकन करतेl विभिन्न तरह के
और फिर उसके मूल भाव को लेने का प्रयास करतेl उनकी यह प्रक्रिया अंत तक चलती रहीl
यह सच हैं कि वे एक सैरा
चित्रकार के रूप में स्थापित हुए और अपनी 'ब्लू' श्रृंखला के चित्रों के लिए प्रसिद्धि पायी परन्तु प्रकृति के सूक्ष्म चित्रण
के अलावा आकार मूलक चित्रों को भी उन्होंने रचाl अपने अंतिम दिनों में वे पुनः अपने प्रारंभिक काल की तरह आकृति मूलक चित्र
रचने लगे थेl 'अनवांटेड चाइल्ड', तिरस्कृत बच्चों का संसार ... l और उसके पहले वीभत्स कुछेक चेहरे अपशगुन माने जाने वाले जानवरों सहितl
लेकिन उन्हें सन् 1965 में ललित कला अकादमी का जो राष्ट्रीय पुरुस्कार मिला था,
वह 'नगर श्रृंखला-तृतीय' के चित्र पर मिला थाl इस श्रृंखला के चित्रों में श्री बिष्ट
स्वभाविक रूप से तरल रंगों को बहाने के बाद नाइफ से रंग लगाकर, उस पर सीधे कलर टूयूब से रेखांकन करते थेl
इस बीच, अमरीका और फ्रांस देशों की यात्राओं ने उनके
दृष्टिकोण और रचना प्रक्रिया में अंतर कियाl जैसा की मैंने पहले ही कहा की उनके दृष्टिकोण प्रयोगवादी थाl अतः जो कुछ उन्हें उचित महसूस होता, वे ग्रहण करते और प्रयोग करतेl इसका मूल्यांकन वृहद रूप में किया जाना हैंl
एक कलाकार का जीवन तो
उन्होंने जिया लेकिन वहीं उत्तर प्रदेश में आधुनिक कला आंदोलन को स्थापित करने
और उसे एक नयी दिशा देने का महत्वपूर्ण
काम भी कियाl

अपने कला संसार
से अलग वे अन्य विधाओं के लोगों से भी जुड़े और सक्रिय रहेl युवा कलाकारों को प्रोत्साहित करने में भी आगे रहेl परन्तु अनेक सम्मान और मान्यताओं, जिन्हें गिनानां यहां मैं जरुरी नहीं समझताl एक बात बड़ी अजीब रहीl हालांकि इसकी चर्चा मैं यहां करना तो नहीं
चाहता था परन्तु बरबस यह बात छोड़ी भी नहीं जा पा रही है, और वह यह कि उनकी लम्बी कला सेवा के बावजूद उत्तर प्रदेश के सांस्कर्तिक कार्य
विभाग ने उन्हें राज्य ललित कला अकादमी का विधिवत अध्यक्ष नहीं मनोनीत कियाl यह अलग बात है कि वह अकादमी कि सामान्य परिषद् द्वारा उपाध्यक्ष पद पर कई बार
चुने जाते रहेl इसके जो भी कारण रहे हों परन्तु एक प्रश्नचिन्ह
है जो अकादमी अध्यक्ष नामित करने के विचार पर खड़ा होता हैl
श्री खास्तगीर की
मान्यता थी कि - 'एक कलाकार में
जितने भी गुण होनें चाहिए उनमें सबसे मुख्य यह है कि वह अपनी इन्द्रियों और मानसिक
शक्तियों को जागृत रखे तथा प्रकृति और संसार के साथ घनिष्ठता स्थापित करेl
'श्री बिष्ट ने उनकी इस
मान्यता को बरकरार रखाl यह बड़ी बात हैl
शत शत नमनसमकालीन भारतीय चित्रकला के एक सशक्त हस्ताक्षर, लखनऊ कला महाविद्यालय के पूर्व प्रधानाचार्य एवं कला-गुरु पद्मश्री रणवीर सिंह बिष्ट का आज (25 सितम्बर) 'प्रयाण दिवस' है, जबकि उनका जन्मदिन 4 अक्टूबर को होता हैंl जीवन मृत्यु के इस दौर में जिसे जब जाना है, जाना पड़ता हैl यह नियति का चक्र हैl
प्रो. बिष्ट की पुण्य-तिथि पर उन्हें स्मरण करते हुए उनके प्रयाण पर 'दैनिक हिन्दुस्तान' में 30 सितम्बर, 1998 ई. को प्रकाशित अपने आलेख के सम्पादित अंश यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँl आलेख की मूल कतरन भी साथ ही चस्पा हैl
मैं समझता हूँ .......... की कोई 22 वर्ष पूर्व लिखा ये लेख आज भी उतना ही प्रासंगिक हैl एक कलाकार, लेखक और कवि के रूप में वे सदा स्मरणीय रहेंगेl इस अवसर पर मैं उन्हें श्रद्धा-सुमन समर्पित करता हूँl
लेखक :
अखिलेश निगम वरिष्ठ चित्रकार, कला समीक्षक एवं
पूर्व क्षेत्रीय सचिव, ललित कला अकादमी, क्षेत्रीय केंद्र,
लखनऊ
पता : 1-राधा कृष्णन् पुरम, पो० - गोसाईंगंज, लखनऊ
(उत्तर प्रदेश) -226501
मोबाइल: +91 95802 39360
Thank you so much Akhilesh Uncle for such a beautiful article .Aapne shabdon se unke jeevan aur vicharon Ka Jo sajeev chitran Kiya hai ,Uske liye bahut bahut dhanyawad
ReplyDeleteThankyou very much 🙏🌹
DeleteExcellent article. The work have done in this field always be memorable.
ReplyDeleteDue regards
Thankyou very much Devendra ji 🙏🌹
DeleteLate senior artist sir Ranveer Singh ji was designed foundation of Indian contemporary art from his art practice.thanks to sir Radha Krishna Puram you highlight to his art journey for my knowledge..regards .. special thanks to kalavratt team you are providing important art information cum art history of our I dian contemporary art ..
ReplyDeleteDear Yogendra ji ... thankyou very much for your vealuable comment on prof. Ranveer Singh Bisht's contribution in art.
DeleteYogendra Kumar Purohit ji, Thxs for your kind comments. I'm Akhilesh Nigam not Radha Krishnan Puram.
Deleteसुंदर आलेख
ReplyDeleteThankyou very much ... Dear Ajay ji.
DeleteGreat contribution of Ranveer singh ji in the field of art n calcute
ReplyDeleteThankyou very much 👍👍👍
DeleteSorry ... but your message show as unknow, so please tel me your name ... ??
Sundar aalekh
ReplyDeleteThankyou very much ... Dear Ajay ji 👍👍👍
Delete