दर्द छुपा था उनके चित्रों मेंचित्रकार मदन लाल नागर उत्तर प्रदेश के उन अग्रणी कलाकारों में रहे है, जिन्होंने समकालीन भारतीय चित्रकला में नये आयाम जोड़े हैं। यह उनकी लगन, संघर्ष और रचना-धार्मिता की कहानी भी अपने में समेटे है और अपने 'नगर' की बिखरती प्राचीन संस्कृति का दर्द भी। इधर करीब दो दशकों से श्री नागर केवल 'नगर' (सिटी) शीर्षक से अपने शहर के विभिन्न रूपों को अपने चित्र-फलक पर उतारते रहे थे। उनका यह 'शहर' कोई और नही वही तहजीब का जाना-माना 'लखनऊ' था - जहां वे जन्में (1923), पले कला की शिक्षा पाई और दी भी। उनके जेहन से इन शहरों की वे गालियां, जिनमें उनका बचपन बीता। जिसे उन्होंने अपने कदमों से नापा और मकान की छत पर चढ़ कर देखा भी था, बिसर ना सका था। सुबह, दोपहर, शाम और न जाने कितने रूपों में देखा था उसे उन्होंने, और यह उनके चित्रों में मुखर होता रहा था एक 'मिथक' की तरह। पर साथ ही उनमें एक दर्द भी था - 'लखनऊवीं तहजीब से कहीं बहुत गहरा लगाव था। 'देहरी का मोह' भी शायद ऐसा ही होता है। उसके बदलते रूप को उनका 'कलाकार' सहजता से स्वीकार नहीं कर पाया था। तभी अनके चित्रों को गढ़ने के बाद उनका 'विषय-पढ़ाव' उनका अपना ही शहर बन गया था।

सच तो यह है कि उनके इन्हीं 'नगर' रूपों ने ही समकालीन भारतीय चित्रकारों में उन्हें एक विशिष्ठ स्थान दिलाया था। इस श्रृंखला के चित्रों के पीछे उनकी सोच से जुड़ी जो मौलिकता उभरी थी, वही उनकी 'पहचान' भी बन गईं थी, और जड़ता-बोध के साथ लयबद्धता इन चित्रों का का एक विशेष गुण। पर ऐसा भी नहीं कि इस बीच और विषयों पर बिल्कुल ही चित्र-रचना श्री नागर जी ने ना की हो। इनके दूसरे चित्रों में उनका विशेष उल्लेखनीय चित्र 'ध्यान चक्र' कहा जा सकता है। इसे विशेष रूप से उन्होंने 'अखिल भारतीय श्री तुलसीदास एवं श्री रामकथा कला प्रदर्शनी' के निर्मित रूपायित किया था। 1973 में हुई यह प्रदर्शनी तत्कालीन प्रचलित मुहावरों से हट कर आयोजित हुई थी, जिस पर 'मानस' का प्रभाव था। 'ध्यान चक्र' चित्र उनकी अध्यात्मिक प्रवृत्ति का द्योतक भी रहा, जिसमें उन्होंने श्रीराम के चरणों को 'मनका की माला' से वृत्ताकार रूप में समेटते हुए, 'सिया राम' शब्द की गहनता का बोध कराने का प्रयास किया था।इस चित्र के लिए मिला प्रथम पुरस्कार कविवर सुमित्रा नंदन पंत के हाथों उन्हें मिला। यू पुरुस्कारों की कड़ी में उन्हें मिला 1964 का राष्ट्रीय पुरस्कार विशेष उल्लेखनीय रहा था अर्थात राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाने का एक पड़ाव। अपनी कला-यात्रा पर आगे बढ़ने के साथ उत्तर प्रदेश के कला-आंदोलन को गति देने में भी उनकी अहम भूमिका को बिसराया नहीं जा सकेगा इस क्रम में लखनऊ नगर महापालिका कार्यालय के भवन में ही एक कला वीथिका की स्थापना (1949-53) करवा कर, उसके 'क्यूरेटर' पद पर की गई सेवाएं भी कम महत्वपूर्ण न थी। पर आज महापालिका की उपेक्षा ने इस वीथिका को बस एक गोदाम बना रखा है। जिसमें कृतियां अपने आप पर आंसू बहा रही हैं। काश, महापालिका-प्रशासक कला की इस धरोहर को एक नए रूप में प्रस्तुत कर पाते।

अखिलेश निगमवरिष्ठ चित्रकार, कला समीक्षक एवं
पूर्व क्षेत्रीय सचिव, ललित कला अकादमी,
क्षेत्रीय केंद्र, लखनऊ
मोबाइल: +91 95802 39360
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