यादों के झरोखों से - कला गुरू श्री सी.बी. बरतारिया : डाॅ. प्रेमकुमारी मिश्रा ‘रश्मि’
शिक्षा-जगत से जुड़ी अपनी जीवन कहानी के पन्नों पर लिखी वे सभी यादें पुनः आँखों के सामने तैरने लगी जब अखिलेश निगम जी का अनुरोध श्री छैल बिहारी बरतारिया के सम्बन्ध में लेख लिखने को कहा गया-अचानक वे सभी यादें स्मरण हो आयीं जब मैं शिक्षा जगत में विचरण कर रही थी। सन् 1964 में मेरा दिल्ली से कानपुर आना हुआ और हिन्दी, संस्कृत साहित्य के साथ-साथ कला में रूचि होने के कारण साहित्य, संगीत और कला की कानपुर की गतिविधियों में भी अपने पिता के साथ अनेक कार्यक्रमों में जाती रहती थीं। चित्रकला के सन्दर्भ में पं. सिद्धेश्वर अवस्थी जो ललित कलाओं के मर्मज्ञ थे उनसे ज्ञात हुआ कि कानपुर का साहित्य और संगीत अधिक मुखर है, हाँ चित्रकला सामन्ती एवं कुलीन समाज की माँग पर कानपुर के चित्रकार रामशंकर त्रिवेदी, प्रभुदयाल तथा रूप किशोर कपूर आदि ने पोट्रेट पेंटिंग का बहुत सा कार्य किया किन्तु मौलिक एवं भावाभिव्यक्ति से रहित उक्त रचनायें मात्र नकल पर आधारित होने के कारण चित्रकला की वास्तविक परिभाषा में शामिल नहीं हो सकी। हाँ कुछ चित्रकार श्री प्रभुदयाल कालीचरण तथा सिद्धेश्वर अवस्थी उस समय पर स्वतंत्रभाव से चित्रांकन कर रहे थे। चित्रा स्टूडियो ऐसी चित्रकला का केन्द्र रहा।
वस्तुतः कल्पना प्रसूत चित्रकला का आविर्भाव कानपुर में 70 वर्ष पूर्व श्री बरतारिया और विश्वनाथ खन्ना के कानपुर पदार्पण के बाद हुआ। श्री सी.बी. बरतारिया बम्बई के सर जे.जे. स्कूल आॅफ आर्ट्स की समृद्ध चित्रकला एवं श्री विश्वनाथ खन्ना शान्ति निकेतन की पुनरूत्थानवादी चित्रकला को लेकर कानपुर आये। इस समय कवि की लेखनी और तूलिका संघातों के साथ सिर्फ पं. सिद्धेश्वर अवस्थी अपने भावाभिव्यक्ति को उजागर कर रहे थे फिर भी सन् साठ के पूर्व किसी भी व्यापक चित्रकला आन्दोलन के लक्षण नहीं थे, क्योंकि इस समय तो केवल स्नातक स्तर का ही छात्रों में चित्रकला के प्रति अनुराग जाग सका था। छात्रों में भी वह क्षमता नहीं आ सकी थी कि वे आधुनिक कला के मुहावरे को समझ सकते।
उत्तर प्रदेश में राजकीय कला शिल्प महाविद्यालय लखनऊ एवं ललित कला महाविद्यालय वाराणसी के साथ-साथ डी.ए.वी. कालेज कानपुर के चित्रकला विभाग का भी कलात्मक वातावरण बनाने में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। जिसका श्रेय प्रो. सी.बी. बरतारिया के कुशल निर्देशन को है- जिनकी छत्रछाया में नयी पीढ़ी के प्रतिभावान चित्रकारों की एक सशक्त पंक्ति जिसका प्रदेश, देश तथा विदेश में चित्रकला के सम्बर्द्धन में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। इनमें डाॅ. अनीस फार्रूखी, डाॅ. प्रेमा मिश्रा, डाॅ. सुरेश नारायण सक्सेना, डाॅ. राजेन्द्र बाजपेयी, असफाक रिजवी, नन्द किशोर खन्ना, पी.एन. पंजवानी, डाॅ. मकबूल अंसारी, जगन सिंह सैनी, कोनिका बनर्जी, राजेन्द्र निगम, रूपनारायण बाथम, डाॅ. प्रेम कुमारी मिश्रा ‘रश्मि’, दिनेश कुमार मिश्र, डाॅ. अभय नन्दन द्विवेदी, रामेष्वर रामेश्वर वर्मा, डाॅ. शशी माथुर आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। ऐसे कलागुरू को मैं अपनी ये पंक्तियाँ समर्पित करती हूँ। एक कला के दीपक से सौ दीप जलाकर; कला-ज्योति देने वाले को कोटि नमन है।
उत्तर प्रदेश के बरेली जिले के एक प्रतिष्ठित जमींदार श्रीकिशन लाल वर्मा के सबसे छोटे पुत्र के रूप में 10 दिसम्बर 1916 को छैल बिहारी बरतारिया का जन्म हुआ। किशोर बरतारिया को विज्ञान और साहित्य के विद्यार्थी होने पर भी कला से अधिक लगाव हुआ। उन्होंने 1938 में कानून की पढ़ाई छोड़कर बम्बई के सर जे.जे. स्कूल आॅफ आर्ट्स में प्रवेश लिया और यहीं पर आपकी कलात्मक प्रतिभा का ऐसा निखार आया कि जिसने इनकी चित्रकला की विविध छात्रवृत्तियाँ एवं पुरस्कार इनकी झोली में डाल दिये। इनमें गवर्नमेण्ट मेरिट स्कालरशिप, लार्ड मेयो स्कालरशिप, बाम्बे आर्ट सोसाइटी के पुरस्कार डाली कर्सेट जी म्यूरल डेकोरेशन प्रतियोगिता का 600 रूपये का पुरस्कार आदि उल्लेखनीय है। इसी समय अनेक प्रतिष्ठित कलाकारों के चित्रों के साथ इनके भी छः चित्र इंग्लैण्ड की महारानी को भेंट किये गये। सन् 1943 में बरतारिया अपने प्रदेश में कला-सम्वर्द्धन हेतु इलाहाबाद आ गये। 1947 तक इलाहाबाद में रहकर फाइन आर्ट्स एकेडमी की स्थापना की और 1948 में कानपुर आये। 1950 से डी.ए.वी. कालेज, कानपुर के चित्रकला विभागाध्यक्ष के रूप में कला की सेवा करते हुये 1977 में रिटायर हो गये। एक चित्रकार के रूप में प्रो. बरतारिया ने कला की हर विधाओं, कला को प्रभावित करने वाले हर वादों को अपनाया। वे पौर्वात्य एवं पाष्चात्य चित्रकला को जोड़ने वाले सेतु चित्रकार थे। जलरंगीय चित्रों में असमाप्त रेखाओं में बँधी हुयी मानवाकृतियाँ यदि पौर्वात्य चित्रकला की रेखा प्रधानता और मूर्त सापेक्षता का प्रमाण हैं तो तैलरंगीय चित्रों में पाष्चात्य, चित्रकला की अमूर्तन की ओर झुकती हुयी ‘डिस्टार्टेड’ आकृतियाँ भी है। आपके जलरंगीय चित्र एक कविता है जो लेखनी से नहीं तूलिका से चित्रित हैं चित्रफलक से दूर तक फैले हुये उनके रंगों का विस्तार आँखों के समक्ष एक सौन्दर्यमयी सृष्टि उत्पन्न करता है।
भावों की सम्प्रेषणीयता इतनी मधुर लगती है जैसे वंशी सुर दूर जाते हुए अपनी अनुगूँज कानों में काफी देर के लिये भर जाये। इनके जलरंगीय चित्रों में ‘सर्वज्ञ’, ‘ख्याल’, ‘नक्खाश’, ‘राधाकृष्ण’, ‘इन्टरनल आई’, ‘शमा और जीवन’, ‘यादें’, ‘कुमुदनी और चन्द्रमा’ एवं तैल चित्रों में ‘संगीतज्ञ’, ‘बरसात के बाद’, ‘टाइम’, ‘नटखट’, ‘कृष्ण’, ‘समर्पण’, ‘जिन्दगी’, ‘मौत का खिलौना’ आदि उल्लेखनीय है। प्रोफेसर बरतारिया के चित्रकार एवं कलागुरू के रूप में इस जीवन का समग्र लेखा-जोखा करने पर ऐसा लगता है कि उत्तर प्रदेश विशेषकर कानपुर जैसी शुष्क औद्योगिक नगरी में आकर जितना उन्होंने दिया उतना उन्हें मिला नहीं। शीर्षस्थ लोगों की धारणा है कि बरतारिया बम्बई में ही रहकर देश के प्रथम श्रेणी के चित्रकारों में शुमार होते। वे के.के. हेब्बर हो सकते थे। एम.आर. आचरेकर और एम.ए. संजीव की भाँति ये फिल्म व्यवसाय में कला निर्देशक के रूप में अपार धन अर्जित कर सकते थे। किन्तु वे तरूणाई में लिये गये इस संकल्प पर अडिग रहे कि अपने कला-ज्ञान को वे अपने ही प्रदेश में दान करेंगें। ऐसा करते-करते वे प्रदेश की कला-क्षितिज के फलक पर अनोखे रंगों के हस्ताक्षर देकर ब्रह्मलीन हो गये। अन्त में अपनी पंक्तियों के साथ अपने श्रद्धा-सुमन अर्पित करती हूँ। औद्योगिक नगरी को अपनी चित्रकला से गौरवपद देने वाले को कोटि नमन है। कोमल रेखाओं के कम्पित तार बजाकर चित्रगीत देने वाले को कोटि नमन है।।







प्रतिभाशाली व्यक्तित्व
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