वह हॉलैंड के ज्युंडर्ट गांव में जन्मा था। मगर पूरी दुनिया, उसकी अपनी थी। दुनिया ही क्यों? सारा आकाश और तारामंडल भी उसका अपना था। रेंब्रांट, कोरो और मिले के चित्र उसके अपने थे। ब्रबंट के खान मजदूरों की घास के पुआल वाली कोठारिया उसकी अपनी थी। सड़कें, गलियां, नदियां, खेत और जलपान-ग्रह, सभी कुछ उसका अपना था। उसके दिलो-दिमाग की ज़द में बाहर की दुनिया तो थी ही। भीतर का अंतरिक्ष भी उसका अपना था। सारी समष्टि ही उसकी थी। मगर अफसोस कि समष्टि का वह नहीं था। इस सर्वथा अस्वीकृत मनुष्य का जन्म लेना धरती पर एक दुर्घटना थी महज़।
विंसेंट वोनगोग को आज पूरा विश्व एक महान चित्रकार के रूप में जानता है। ना केवल जानता है, अपितु उसकी कृतियों के साथ, उसके कष्टमय जीवन से अनन्य प्रेम करता है। उसी वोनगोग से, जिसके चित्रों को उसके जीवित रहते कभी महत्व नहीं मिला। ना ही उसे वह प्रेम प्राप्त हुआ जिसके लिए वह मृत्यु पर्यंत बेचैन रहा। वोनगोग के सृजन की बेचैनी आत्यंतिक-उत्कट थी। वह मानवता के उस कारुण्य का सागर थी, जिसे उसके 'समय' ने नहीं समझा। पग-पग पर मिली निराशा और तिरस्कार ने उसके मन मस्तिष्क को छिन्न-भिन्न और अवसाद ग्रस्त कर छोड़ा और अतंत: एक महान कलाकार ख़ुद को ही गोली मार देता है।

इस महान कलाकार का जीवन युद्धमय जीवन था। एक ऐसा युद्ध, जो स्वयं से होता है। स्वयं के विचारों और निर्णय से होता है। अपनी ही अबूज कल्पनाओं से होता है। आंतरिक यथार्थ से होता है। इस युद्ध में वोनगोग इतना तल्लीन रहा कि उसके संवेगों से उसका साथ छूट पड़ा। तथापि इस बेचैन घर्षण ने ऐसी कृतियों को जन्म दिया, जिसका विश्व सदा ऋणी रहेगा। उसका व्यक्तित्व विरोधाभासी था। विरोधाभास भी ऐसा, जो चकित कर दे। जैसे वह अपने भीतर के अंधेरे से दुर्धर्ष-संघर्ष कर रहा था। लेकिन उसने अपने चित्रों में रोशनी की कतारें बांध दीं। उसके लिखे पत्रों से पता चलता है कि, उसकी मन:स्थिति, मलीन और धूसर पड़ चुकी थी। तथापि उसने चटक, धवल और पीताभ से सराबोर कृतियां हमारे समक्ष रख दी। कला-क्रेता समाज और संबंधियों में भाई को छोड़कर सभी ने उसे दूर किया। फिर भी उसने दुनिया के प्रति उदारता ही प्रदर्शित की। दुनिया को प्रकृति का वैराट्य अर्पित किया। अंतर्विरोधों की भाव-भूमि पर खड़ा होकर, वह एक तरफ आलू खाकर भूख मिटाने वाले खान मजदूरों का अत्यंत संवेदनशील चित्र 'पोटैटो ईटर्स' बनाता है, तो दूसरी तरफ फूलों फसलों से लक-दक खेतों में मैदानों के संग सूरजमुखी सजाता है।
यह एक आश्चर्य की बात है कि वोनगोग को अपने जीवन में न ख्याति मिली, न ही प्रेम; किंतु उसकी मृत्यु के बाद उसे अपार ख्याति मिली और अनन्य प्रेम। वह एकमात्र ऐसा कलाकार है जिसके जीवन में सर्वाधिक रूचि ली गई। उस पर अनेक फिल्में बनाई गई। जीवनियां लिखी गई। देश दुनिया के रंग-कर्मियों ने उसके चरित्र को मंच पर जीवंत किया। ना जाने कितने कवियों ने उसे कविता में उतारा। प्रसिद्ध कवयित्री अनीता वर्मा लिखती हैं :-
--- आंखें बेधक/तनी हुई नाक/छिपने की कोशिश करता था कटा हुआ कान/दूसरा कान सुनता था दुनिया की बेरहमी को/व्यापार की दुनिया में वह आदमी/प्यार का इंतजार करता था। ---

वोनगोग ने अपने पत्रों में, खुद अपनी दीवानगी के बारे में, अनेकों बार लिखा है। देखिए 'तारपीन के तेल में घोली हुई धूप की डलिया मैंने कैनवस में बिखेरी थी मगर! क्या करूं? लोगों को उस धूप में रंग दिखते ही नहीं। मुझसे कहता था थियो--चर्च की सर्विस कर लूं और उस गिरजे की खिदमत में गुजारुं मैं अपने दिन और रात। जहां रात को साया समझते हैं सभी। (और) दिन को मृगतृष्णा का सफर! उनको असल की हकीकत तो नज़र आती नहीं। मेरी तस्वीरों को कहते हैं वहम है। मेरे कैनवास पर बने पेड़ की विशालता तो देखो! मेरी सर्जना ईश्वर के उस पेड़ से कुछ कम तो नहीं हैं।' टुगेंडहोल्ड ने वोनगोग के बारे में बहुत ठीक लिखा है कि, "उसके अनुभवों के नोट्स चीजों का ग्राफ और दिली धड़कन की प्रतिक्रिया है।" असल में चित्रकार के रूप में वोनगोग में अद्भुत रचनात्मक क्षमता थी। इस क्षमता को उसने आत्मिक सौंदर्य, प्राकृत सुषमा तथा मनुष्य जीवन के संवेदनात्मक पक्षों को उद्घाटित करने में लगाया। साथ ही 'अपने आप' की तलाश में भी। उसके बनाए अनेक आत्मचित्र इस बात की पुष्टि करते हैं। इस तलाश, में वह बराबर महसूस करता रहा कि, उसका समय और समाज संवेदना शून्य है। इसे ही उसने स्वयं के विविध आत्म चित्र में अभिव्यक्त किया है। रचनात्मक तल पर वोनगोग में स्फोटकता थी। इसकी बदौलत अपने जीवन के अंतिम दस वर्षीय कला-काल में वह नो सौ से अधिक पेंटिंग बना गया। अनेक असफलताओं के बावजूद अपने चित्रों में प्राण-तत्व पिरोने को जूझता रहा। उसका ह्रदय उदारतम विचारों में गुंथा, विद्युत आवेगों का संकुल था। उसने सबसे प्रेम करना चाहा। पेड़ों से, नदियों से, आंखों से, अंधेरों से, तारों से, रोशनी से। उसके प्रेम का केंद्र मनुष्य और मनुष्य की करुणा थी। तभी तो ब्रंबट के खान मजदूरों की जिजीविषा और संघर्ष उसके अपने संघर्ष हो गए। करुणा का ऐसा सोता फूटा उसमें, कि उन दरिद्रों के समान वह अपने आप को झोपड़ी में घास के पुआल पर ले आया। वोनगोग बेरीनाज के खान श्रमिकों को धार्मिक उपदेश देने की नौकरी पर गया था। वह उन मजदूरों के दु:ख-दर्द में इस तरह शामिल हुआ, कि ब्रेड का एक टुकड़ा भी उसने अपने लिए नहीं बचाया। भूखे और नियति के क्रूर पाश में बंधे मजदूरों को उसने अपने हिस्से का सर्वस्व लुटा दिया। इसीलिए तो वह लाचार खान मजदूर उसे 'कोयला खदानों का मसीहा' कहा करते थे। मगर सयानी दुनिया ने उसके इस व्यवहार को अनुचित माना। चर्च के उद्देश्य हेतु नाकाबिल मानते हुए उसे इस काम से मुक्त कर दिया गया। दूसरे शब्दों में नोकरी से निकाल दिया गया। उसके लिखे इन शब्दों से समझा जा सकता है कि उसके सवाल कितने गंभीर और मानवता से कितने सराबोर थे। वह कहता है, "जब मैं कमजोर को रौंदता हुआ देखता हूं तो मुझे संदेह होने लगता है कि प्रगति और सभ्यता क्या कहती है!"

वोनगोग को जीवित रहते एक ही व्यक्ति ने अटूट प्रेम किया। वह था उसका छोटा भाई थियो (थियोडोर)। इन दोनों भाइयों का प्रेम विश्व इतिहास में बहुत दुर्लभ है। थियो के कारण ही वोनगोग पेंटिंग बना पाया। आर्थिक रूप से जीवन भर वह अपने भाई की भेजी हुई राशि पर निर्भर रहा। दोनों के मध्य अपार प्रेम था। हमें वोनगोग के जीवन के बारे में सर्वाधिक जानकारी दोनों भाइयों के बीच हुए पत्र-व्यवहार से मिलती है। वोनगोग ने जो पत्र लिखे वह साहित्य की महानतम उपलब्धियों में गिने जाते हैं। श्रीकांत वर्मा ने दिनमान में लिखा था कि, 'उनके (वोनगोग के) पत्रों की तुलना बड़ी आसानी के साथ टोल्स्टॉय और दोस्तोवस्की की कृतियों से की जा सकती है। टोल्स्टोय की कृतियों में मनुष्य का स्वर्ग है, दोस्तोवस्की की रचनाओं में मनुष्य का नरक। विंसेंट वोनगोग के पत्रों में दोनों ही है।' वोनगोग के लिखे को पढ़ने पर हमें यह बात एकदम सही मालूम पड़ती है। वह कहता है
"मैंने हर शाख पर/पत्तों के रंग और रूप पर परिश्रम किया है/उनके सच को व्यक्त करने में/उन दरख़्तो की संभली हुई देह तो देखो/कैसे खुद्दार हैं ये पेड़/मगर कोई भी मगरूर नहीं है।"
वोनगोग अप्रतिम मेधावान था। उसको किताबें पढ़ने का जुनून था। कविता से लगाव था। फ्रांस के इतिहास में उसकी दिलचस्पी थी। अल्प समय में ही उसने कला के चरम को साध लिया था। परंतु उसे मनोरोग से जूझना पड़ा। कई बार मनोचिकित्सा लेनी पड़ी। उसको समय-समय पर उन्माद के दौरे आते थे। इसी दौरान एक बार उसने अपना कान काट लिया था। यह अलग बात है कि कोई कहता है कि अपनी वैश्या प्रेमिका के प्रसंग में उसने ऐसा किया, तो कोई अपने चित्रकार दोस्त गोंगुई से हुए झगड़े की प्रतिक्रिया में ऐसा किया मानते हैं। अलबत्ता एक महान चित्रकार ने ऐसा किया जरूर था। मनोचिकित्सालय में इलाज के दौरान ही वोनगोग ने 'स्टारी नाइट' नाम की विख्यात पेंटिंग बनाई थी। इस बात पर आश्चर्य होता है कि मानसिक उद्वेग के क्षणों में उसने ऐसी पेंटिंग कैसे बना दी, जो टेलिस्कोप से देखे गए एक विशेष तारा संकुल की आभा जैसी लगती है। पेंटिंग में कैसे, तारों के प्रकाश की, वह गति दे दी, जो प्राकृतिक रूप में पाई जाती है। स्थिर नहीं, अपितु गतिशील आकाश जो काला नहीं बल्कि नीले रंग के विस्मय का स्फोट है। वस्तुतः नीले रंग और ब्रश की सहायता से अपनी ही शैली में आघात देकर, उसने यह चित्र बनाया था। जो निज की क्षत-विक्षत चेतना और आध्यात्मिक शांति का, अभिभूत करने वाला द्विविध संयोजन है। उसके चित्रों को देखने से ज्ञात होता है कि वह कला में दृष्टता पर जोर देता है। दृष्टता, जिसमें मानवता की पक्षधरता है, उसी के शब्द हैं 'गरीबी के गंभीर परीक्षणों में आप चीजों को पूरी तरह से अलग आंखों से देखना सीखते हो।' उसकी यह गरीबी अपने में हजार अर्थों की गरीबी है। उन्हीं अर्थों की यात्रा किसी कलाकार की दृष्टता है। वोनगोग की दृष्टता पर किसी की कही यह ठीक पंक्ति है कि, "(वोनगोग के चित्र) बेलगाम अंतर्दृष्टि से प्रेरित बेकाबू भावनात्मक तत्व है।" असल में वोनगोग का पागलपन, एक अलग तरह का पागलपन था। कुछ हद तक परा-मानवीय। कहा जाए देवत्व के तुल्य। उसके सामान्य जीवन का दुखद पहलू यह है कि उसके चित्रों को पूरे जीवन-काल में मान्यता नहीं मिल सकी। यह अलग बात है कि उसकी मृत्यु के अनेक दशकों बाद 1984 के वर्ष की एक सुबह, उसका बनाया सूरजमुखी का चित्र ज्ञात इतिहास का सबसे अधिक मूल्य, दो करोड़ सैंतालीस लाख पचास हजार पाउंड, वाला चित्र बन जाता है। जीवन में अभागे रहे चित्रकार को वर्ष 2004 में नीदरलैंड सरकार सर्वकालिक दस महान डच व्यक्तियों में शामिल करती है।

वोनगोग के जीवन में सुख का कोई क्षण नहीं था। अपने जीवन के अंतिम वर्षों में अपनी बहन को लिखे गए पत्र में वह कहता है 'इंसान को सुख, प्रसन्नता, आशा और प्रेम की जरूरत होती है। जैसे-जैसे मैं, बूढ़ा, कुरूप, जाहिल, बीमार और साधन हीन होता जा रहा हूं, वैसे-वैसे मुझसे, आक्रामक, सुव्यवस्थित, प्रसन्न रंगों का इस्तेमाल कर, अपने आप से प्रतिहिंसा लेने की इच्छा बढ़ती जा रही है।' इससे पता चल रहा है कि वोनगोग अवसाद में गहरा धसता जा रहा था। और आख़िरकार पेंटिंग के दौरान पक्षियों को डराने के लिए रखी गई रिवाल्वर से वह, खुद को गोली मार देता है। 29 जुलाई 1890 को 37 वर्ष की छोटी आयु में विंसेंट, जिसका शाब्दिक अर्थ 'विजेता' होता है मृत्यु से हार जाता है। इस महान कलाकार का अवसान कला जगत में सर्वाधिक कारणिक घटना के रूप में देखी जाती है। कितना दुखद है कि वोनगोग को उसके आसपास के लोग 'असंतुलित मनुष्य' कहते रहे। मंगलेश डबराल कहते हैं, "पागल होने का कोई नियम नहीं है" इसी चुनाचे पहेली गूंजती है--वोनगोग के लिए दुनिया पागल थी या दुनिया के लिए वोनगोग!
लेखक : चेतन औदिच्य स्टूडियो : 49 - सी, जनता मार्ग,
सूरजपोल अंदर, उदयपुर -313001 (राजस्थान)
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