मथेरण कला के तपस्वि श्री मूलचंद महात्मा बीकानेर : योगेंद्र कुमार पुरोहित
इतिहास में जहाँ एक तरफ अजन्ता की कला बिखर रही थी वही दूसरी और बीकानेर रियासत की नीव रखी जाने लगी थी! दोनों अलग अलग बात है इतिहास में, फिर भी इनमे एक समानता है और वो है कला! अजंता जिन कारणों से विलुप्त होने को थी वही उसकी कई उपशैलियाँ किसी अन्य कारणों से फल फूलने लगी थी! और इसी क्रम में बीकानेर रियासत में भी अजंता की उपशैली का विकास चित्रकला के रूप में हुआ था! जिसे मथेरण कला कहा गया! बीकानेर रियासत में मथेरण कला मेवाड़, मारवाड़, से होते हुए पहुंची और इसे आश्रय मिला!
मथेरण नाम से पहले ये अजंता की ही शैली रही होगी, जिसका उदेश्य मात्र बौद्ध और जैन धर्म का प्रचार रहा होगा पर बीकानेर रियासत में आते ही ये उपशैली मथेरण एक मिश्रित चित्र शैली के रूप में सामने आयी! एक विशेष जाति के परिवार के कारीगर जिन्हे मथेरण जाति कहा जाता है! उन्होंने बीकानेर के राज महलों, मंदिरों और धनाड्य वर्ग के प्रासादों को अपनी चित्रशैली से अलंकृत किया! मथेरण चित्र के विषय अब अजंता की भांति नहीं थे न ही उनमे बुद्ध के जीवन की जातक कथाएं थी! मथेरण कलाकारों के चित्रों का विषय अब हिन्दू देवी देवताओं की जातक कथाये, वन्यजीव जंतुओं के चित्र, बारिश और बिजली के चित्र बना! जिसका एक जीवनत उदाहरण बीकानेर के जुनागड़ किले में बादल महल का भित्ति चित्र आज भी हमारे सामने प्रस्तुत है!
बीकानेर में मथेरण कला का काम बीकानेर के किलों मंदिरों और रामपुरिया हमवेलियों में आज भी संग्रक्षित और सुरक्षित है जिसे दर्शक देख सकते है!
मथेरण कला का चित्र फलक रहा है दीवार/भित्ति, काष्ठ/लकड़ी, ताड़पत्र, कपडा, कागज! तो रंग रहे है प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले खनिज पदार्थों से तैयार रंग जो समय के साथ बदलते भी रहे है और आज अत्याधुनिक रंगों (जो की पहले से ही तैयार होते है) का प्रयोग होने लगा है समय की बचत के लिए और चित्र के अधिक टिकाऊ होने के लिए! जो की एक अच्छी बात ही कही जानी चाहिए कला के संगरक्षण की दृष्टि से, मैं इसका समर्थक हूँ !
बीकानेर रियासत जो अब वर्तमान में राजस्थान प्रदेश का सबसे बड़ा शहर क्षेत्रफल के आधार पर है, वहाँ आज भी मथेरण कला को जीवित रखे हुए है, मथेरण कला के चित्रकारों के परिवार! अब उनकी संख्या सिमित हो गयी है, पर जितने भी है वे प्रतिबद्ध होकर निरंतर अपने पारिवारिक कला कर्म को कर रहे है! साथ ही अपनी आजीविकोपार्जन भी कर रहे है परंपरागत रूप में! ये बड़ा जटिल कार्य है आज के इस डिजिटल युग में, जहाँ वाल पेपर से लेकर हिन्दू देवी देवताओं के प्रिंटेड चित्र बहुत ही सस्ते में और रस्ते में मिलजाते है! इस समय में लोक चित्रकारी या पौराणिक शैली की चित्रकारी से रचे हिन्दू देवी देवताओं के चित्रों को बीकानेर के लोगो के घर तक पहुँचाना बड़ा कठिन और परिश्रम वाला का काम है! जिसे बखूबी कर रहे है मथेरण कला के चित्रकार! मेरी दृष्टि में ये कोई तपस्या से कम बात नहीं नहीं !
आधुनिक युग में परिवार का पालन पोषण, बच्चों की उच्च शिक्षा, जीवन की सामान्य जरूरतों की पूर्ति करना वो भी मात्र प्रोरणिक कला से! असंभव सी बात है और ये सच भी है! लेकिन ये मथेरण कला के चित्रकारों के परिवार सब कुछ भुलाकर एक तपस्वी की भांति निरंतर सलंग्न है अपनी तपस्या में सो उन्हें साधुवाद मेरी ओर से! इन्ही मथेरण कला के चित्रकारों के परिवार के सदस्य है श्री मूलचंद महात्मा, जिनका जन्म वर्ष 1965 में बीकानेर में हुआ और अपने बचपन से ही आप ने मथेरण कलम को पकड़ा। शिक्षा कक्षा आठ तक करने के ततपश्चात परिवार के काम में पिता और अपने बड़े भाई के साथ आप ने मथेरण कला को अपनी जीविकोपार्जन का मुख्य आधार बनाया और आज 2022 में भी आप निरंतर मथेरण कला के लिए प्रतिबद्ध होकर चित्रकारी कर रहे है! बीकानेर के अनेको मंदिरों जिनमे मथेरण कलम का काम हुआ है! आप ने उसमे पुनः मथेरण कला की वही खुशबू अपनी कलम से बिखेरी! अब चाहे वो लक्ष्मीनाथ मदिर हो या रघुनाथ जी का मंदिर या बीकानेर संभाग के किसी डिस्टिक का मंदिर जिनमे नापासर, डूंगरगढ़, नोखा, फलोदी, आदि!
मथेरण चित्रकार श्री मूलचंद महात्मा की मथेरण कलम बीकानेर ही नहीं वरन बीकानेर से बहार भी अपनी मथेरण कला की खुशबू कोलकाता तक बिखेर चुकी है कोलकाता के अनेक जैन और हिन्दू देवी देवताओं के मंदिरों में भी मथेरण कलम की पच्चीकारी देखि जा सकती है! जिसे जीवंत किया है बीकानेर के मथेरण कला के चित्रकार श्री मूलचंद महात्मा ने!
आला-गिला, वाश, टेम्परा के साथ अत्याधुनिक तकनीक को भी श्री मूलचंद महात्मा ने मथेरण में सम्मिलित किया है! ये उनके रचनात्मक सोच का परिचायक भी कहा जा सकता है और लिक से हटकर कुछ करने की ललक भी उनके मथेरण चित्रों में देखने को मिलती है! रचनाशीलता कलाकार को जीवित रखने की कुंजी होती है! जिसे मथेरण कला के कलाकार श्री मूलचंद महात्मा भली भांति जानते और समझते है!
पिछले 45 से 47 साल से श्री मूलचंद महात्मा प्रतिदिन उठ कर अपने नित्य कर्म से मुक्त होकर मथेरण कला के सृजन कार्य में अपने सामान्य से निवास स्थान पर अपनी साधारण सी गद्दी पर बैठकर कभी पूजन क्रिया में उपयोग होने वाले देवी देवताओं के पूजन पाने चित्रित करते है, तो कभी गणगौर की काष्ठ की प्रतिमा पर रंग रोगन तो कभी किसी जातक कथा का चित्रण कागज पर उकेरते है, ऐसे असंख्य छोटे और बड़े चित्रण करते वे अपने हाथ से मथेरण कला में चित्रित कर रहे है! मानो एक तपस्वी अपनी तपस्या कर रहा हो!
उनसे जब संवाद हो रहा था मथेरण कला पर उस समय मूलचंद जी ने मेरे समक्ष एक मंदिर की छत पर किये गए मथेरण कला के काम की तस्वीर रखी! उस तस्वीर/को देखते ही मुझे यूरोपियन कलाकार/मूर्तिकार/चित्रकार माइकेलएंजिलो की और उनकी पेंटिंग सस्टीन चेपल चर्च की छत पे बनी पेंटिंग याद आयी और मैं ये कह सकता हूँ की श्री मूलचंद महात्मा का वो चित्र माइकेलएंजिलो की और उनकी सस्टीन चेपल पेंटिंग से कतई कम नहीं है! आप ने वन्य जीवजंतुओं का मथेरण शैली में सुन्दर चित्रांकन किया है तो समकालीन परिवेश और समाज की मांग के अनुरूप प्रयोगात्मक चित्रण भी मथेरण कला में प्रस्तुत किये है!
सामान्य जीवन जीने वाले शांत और कम बोलने वाले मथेरण कला के कलाकार श्री महात्मा अपनी ही दुनिया में प्रतिबद्धता के साथ/मथेरण कला के साथ अपनी गुजर बसर कर रहे है! मानो एक तपस्वी एक घोर तपस्या कर रहा हो! जिसे भीतर का संसार पूर्ण प्रतीत होता है और बहार का मिथ्या! उनके भीतर मथेरण कला जीवित है जो उन्हें अपने पुरखो और परिवार से मिली है! वही उनका ध्यान और ज्ञान भी है वही उनकी चेतना और प्रभु स्मरण भी! प्रतिस्प्रधा, प्रसिद्धि, प्रभुत्व उनके व्यक्तित्व में तनिक भी नहीं दीखता एक प्रवाह की तरह वे बहे जा रहे है! समय और मथेरण कला के साथ, यही उन्हें अपने अतीत से मिला है और ये सच भी है क्योंकि अजंता इसका प्रमाण है जहाँ सात पीढ़ियों ने अजंता को रचा और खुद गुमनाम रहे वही बात बीकानेर के मथेरण कला के चित्रकारों के परिवार में भी स्पष्ट देखने को मिलती है!
मैंने प्रयास और जिद की तो मैं मथेरण कला के इस मौन और गुप्त रूप से सृजन करने वाले बीकानेर के कलाकार तक पहुँच पाया और मथेरण कला के इस सच्चे तपस्वि की तपस्या पर प्रकाश डालने का प्रयास कर पाया, जो की नगण्य ही रहेगा जब तक आप सब लोग इस मथेरण कला की और अपना ध्यान आकर्षित नहीं करोगे! कुछ छायाचित्र आप के अवलोकन हेतु, ताकि मेरी बात की पुष्टि हो जाए बीकानेर की मथेरण कला और उसके तपस्वि श्री मूलचंद महात्मा जी के सन्दर्भ की जिसे मैंने यहाँ उल्लेखित किया है!
नोट - कला मर्मज्ञ स्वर्गीय श्री कृष्णा चंद्र शर्मा जी ने मथेरण कलम शीर्षक से एक पुस्तक प्रकाशित की फिर उसके बाद बीकानेर के कई कला विद्यार्थियों ने मथेरण कला पर शोध पत्र तैयार किये और उन्हें उन शोध पत्रों के आधार पर मथेरण कला में वाचस्पति की उपाधि भी मिली! जिनमे डॉक्टर राकेश किराडू (प्रो. महाराजा गंगा सिंह यूनिवर्सिटी बीकानेर चित्रकला विभाग) डॉक्टर रजनीश हर्ष (सचिव राजस्थान ललित कला अकादमी) और डॉक्टर मोहन चौधरी (स्वतंत्र चित्रकार) के नाम गिनाये जा सकते है! पर इन सब के लिए मथेरण कला के जिवंत स्त्रोत रहे श्री मूलचंद महात्मा जी और उनका सानिध्य व सहयोग! जिसे नाकारा नहीं जा सकता!
आज जरूरत है बीकानेर में मथेरण कला के लिए एक संग्राहलय की/मथेरण कला के शिक्षण/प्रशिक्षण केंद्र की और मथेरण कला के पुनरुथान की! ऐसा इस लिए भी कह रहा हूँ क्यों की ये मुमकिन है! इसका उदाहरण है मधुबनी चित्रकला के लिए बना संग्राहलय और प्रशिक्षण केंद्र जो की बिहार में स्थित है! अगर ऐसा होता है तो सच्चा योगदान होगा मथेरण कला के लिए उसके पूनरुथान के लिए और मथेरण कला के तपस्वि श्री मूलचंद महात्मा की प्रतिबद्धता के साथ किये गए बीकानेर में उनके मथेरण कला की तपस्या/काम के लिए!
मथेरण कला के चित्रकार श्री मूलचंद महात्मा बीकानेर की सृजनात्मक तपस्या को आप ने कलावृत्त कला पत्रिका में प्रकाशित कर और उचित स्थान देकर कला गुरु डॉ. सुमहेन्द्र शर्मा जी की पारम्परिक कला के खातिर लिए गए कला के उथान के वृत्त को पूर्ण सम्मान दिया है ! जिसके लिए मैं आप का हृदय से कृतज्ञ हूँ ! और आप से ये उम्मीद करता हूँ की भविष्य में भी आप मेरे द्वारा प्रस्तुत किये जाने वाले आलेख को कलावृत्त पत्रिका में स्थान देंगे। . साधुवाद आपश्री को संपादक श्री संदीप शर्मा।
ReplyDeleteआपका आभार एवं धन्यवाद योगेन्द्र जी। मैं बस प्रयासरत हूं कि कला के उत्थान के लिए अपने पिताश्री द्वारा स्थापित कला संस्था और कला पत्रिका के माध्यम से हमारी पारंपरिक कलाओ को फिर से चित्रकारों के नवीन सृजन का विषय बना इसे फिर से जनप्रिय बनाया जाए।
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