संत चित्रकार क्षितीन्द्रनाथ मजूमदार : डॉ. श्यामबिहारी अग्रवाल

जन्मदिवस "31 जुलाई" पर स्मरण एवं नमन:

कलाकार अपनी सृजनात्मक कला रचना के माध्यम से, अपनी पहचान बनाता है। यही पहचान, कलाकार को अमरत्व की ओर ले जाती है। क्षितीन्द्रनाथ मजूमदार एक ऐसे ही संत चित्रकार के रूप में याद आते हैं।

क्षितीन्द्रनाथ मजूमदार का जन्म 31 जुलाई 1891 में पश्चिमी बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले के नीमतिता के पास जगताई ग्राम में हुआ था। यह ग्राम गंगा के किनारे स्थित है और शायद यही कारण था कि जब उन्हें गंगा जमुना के संगम पर बसे इलाहाबाद से पं. अमरनाथ झा का बुलावा आया तो उन्होंने इसे स्वीकार कर लिया जबकि शान्ति निकेतन में काम करने के लिए रवीन्द्रनाथ टैगोर, इटली के बादशाह मुसोलनी की पुत्री, बंगाल के अँग्रेज गर्वनर रोनाल्डशे के उनके देश चलने के अनुरोध को वे ठुकरा चुके थे। वैष्णव धर्म में आकण्ठ डूबा उनका मन गंगा किनारा छोड़ने को तैयार न हुआ। इस भारतीय कलाकार ने हमेशा अपनी मिट्टी और अपनी संस्कृति से जुड़ कर रहना पसन्द किया।

क्षितीन्द्रनाथ मजूमदार ने कोलकाता आर्ट कालेज के अवनीन्द्रनाथ टैगोर से कलाविद्या की दीक्षा पाई और सन् 1942 में आ बसे साहित्य, कला एवं संस्कृति की नगरी इलाहाबाद में जिसे ऋषियों की साधना स्थली और यज्ञों की पावन भूमि भी माना जाता रहा है।

क्षितीन्द्रनाथ के साथ थी उनके शिल्पगुरु अवनीन्द्रनाथ टैगोर की नई दिशा जिसे नाम दिया गया 'टैगोर स्कूल' यानी 'बंगाल शैली'। सूत्राधार बने क्षितीन्द्रनाथ मजूमदार और अवनी बाबू के शिष्यों की एक अच्छी ख़ासी टोली थी- नन्दलाल बोस, दुर्गेश सिन्हा, असितकुमार हाल्दार, शैलेन्द्रनाथ डे, सत्येन्द्र दत्त, हाकिम ख़ान, सुरेन्द्रनाथ कर, वेंकटप्पा, की जो कंधे से कंधा मिलाकर आधुनिक भारतीय चित्रकला के पुनर्जागरण काल अर्थात बंगाल शैली को स्थापित करने में अपना योगदान दे रहे थे।

साहित्य, संगीत एवं कला के प्रेमी पूर्व कुलपति पं0 अमरनाथ झा ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में चित्रकला के विकास की बागडोर सम्हालने के लिये क्षितीन्द्रनाथ मजूमदार को चुना। तारीख याद करें तो सन् 1942 सितम्बर की पहली तारीख जब मजूमदार ने कार्य-भार ग्रहण किया।

इलाहाबाद विश्वविद्यालय के सीनेट हाल के बगल में स्थित फाइन आर्ट जिसके ग्राउण्ड फ्लोर में मुख्य लाइब्रेरी थी। उसके उपर जिस बड़े हाल में विश्वविद्यालय की सांस्कृतिक गति विधियां हुआ करती थी उसी हाल में चित्रकला की कक्षाओं का शुभारम्भ हुआ।

क्षितीन्द्रनाथ मजूमदार प्रयाग में पहले व्यक्ति थे जिन्होने भारतीय पुनर्जागरण आन्दोलन को सक्रिय किया। और इलाहाबाद ही नही सम्पूर्ण उत्तर प्रदेश में कला के प्रचार प्रसार के साथ-साथ चित्रकला को उच्च शिक्षा में उचित स्थान दिलाने के लिए कार्य करते रहे।

प्रायः सभी विद्वान कला समीक्षकों ने अवनीन्द्रनाथ द्वारा प्रवर्तित चित्रकला के अभ्युदय को पुर्नजागरण नाम दिया । लेकिन जिन घटना समूह तथा कारण के मिलने से इटली के रेनसा का उद्भव हुआ उस प्रकार की सम्भावना के साथ बंगाल की नवीन चित्र शैली का तुलनात्मक मूल्यांकन शायद बहुतों को अतिशयोक्ति लगे। लेकिन यह निर्विवाद सत्य है कि उस कला-धारा ने शीघ्र ही सम्पूर्ण भारत को अप्लावित कर लिया और यह हमारे देश की गुणगरिमा को पुनः प्रतिष्ठित करने में सक्षम हुआ।

उनकी 'वाश' विधा अपने ढंग की अनूठी विधा है जिसमें वे सफेद रंग को बड़ी चतुराई से प्रयोग कर लिया करते थे जिसके कारण उनके चित्रों में एक विशेष प्रकार की रहस्यात्मक चमक आ जाती थी। वे सर्वप्रथम रंग विशेषज्ञ हैं। वे चाहे चमकते हुए तेज रंगों का प्रयोग करें अथवा मंद रंगों में धुंधले प्रभाव को दर्शायें, उनके रंगों में उनके द्वारा प्राण फूक दिये जाते हैं।

वस्त्रविन्यास की विचित्रता एवं आकर्षक सादगी के माध्यम से वे न केवल चित्र की आकृतियों को प्रभावपूर्ण बना देते हैं वरन् उसके द्वारा वह चित्रों में समन्वय, चित्रविन्यास एवं सामान्य प्रभाव को बढ़ा देते हैं। वस्त्र-विन्यास में सिलवटों को प्रदर्शित करने के लिए रेखाओं द्वारा सपाट रंगों का प्रयोग उनकी विशेषता है जिससे चित्रों में गतिशीलता का आभास होता है।

क्षितीन्द्रनाथ मजूमदार जी बताया करते थे कि गुरु के अपरिमित असीम स्नेहपूर्ण निर्देशन से शिल्प-दृष्टि और शिल्प-सृष्टि के अनन्त भण्डार में अनायास ही प्रवेश करने का अधिकार मिल जाता था। लेकिन उस भण्डार के दरवाजे में ताले को खोलने के लिए आवश्यक होती है गुरु के प्रति शिष्य की श्रद्धा की चाभी की और उस भण्डार के अन्दर की अंधेरी परत हटाने के लिए चाहिए गुरु के स्नेह से बनायी गयी बाती, जो दीपक द्वारा प्रकाश विकीर्ण कर उसके पथ को आलोकित करे।

अवनी बाबू, क्षितीन्द्रनाथ मजूमदार को 'चैतन्य सिद्ध' कहते थे। उन्होंने महाप्रभु चैतन्य के जीवन चरित पर अनेक चित्र बनाये। संत कलाकार के जीवन में इस ओर झुकाव का कारण उनके घर परिवार का धार्मिक वातावरण था। प्रतिदिन साधु सन्यासियों के भजन कीर्तन सुनते सुनते क्षितीन्द्र नाथ स्वयं कीर्तन गान करने लगते।

मजूमदार की शैली की व्यक्तिगत विशेषता है उनके वृक्षों का चित्रांकन। पुष्पों के चित्रांकन से कलाकार की कल्पना साकार हो उठती है। गीत गोविन्द को चाक्षुष रूप देने वाले इस प्रतिभाशाली चित्रकार ने रंग और रेखाओं द्वारा ऐसे सुमधुर संसार की सृष्टि की है जहां काम गंध पूर्णरूप से निर्वासित हो गया है।

इटैलियन पुर्नजागरण के फ्रा एन्जेल्को के चित्रों में जिस प्रकार धर्म चिन्तन तथा प्रार्थना के एकांगीभूत रूप की अभिव्यक्ति हुयी है उसी प्रकार क्षितीन्द्रनाथ मजूमदार की चित्र रचना में वैष्णवी धर्म विश्वास और भक्ति भावना रही है। यही भक्ति भावना उनके चित्रों में सर्वत्र दिखाई पड़ता है।

मजूमदार जी चित्र रचना करते रहे। उनके चित्रों में शैलीगत भिन्नता बहुत कम देखने को मिलती है। अपने गुरु से जो शैली उन्होंने प्राप्त की उसी शैली में जीवनपर्यन्त चित्र-रचना करते रहे। लेकिन उनकी समस्त कृतियों में मौलिकता है। कलाकार ने अपनी अन्वेषक शक्ति का पूर्ण परिचय दिया है। केवल विषय-वस्तु में ही नहीं, उनके चित्रों में अन्य दृष्टियों से भी उनके आन्तरिक उद्भावना का परिचय मिलता है। उनके चित्रों के विषय धार्मिक प्रसंगों पर आधारित हैं, फिर भी उनके प्रत्येक चरित्र इसी धरती के जीते-जागते लोग हैं। रेखाओं की बारीकी, लयबद्धता तथा रंगों का सुन्दर चयन और कुशलता के साथ उसका प्रयोग उनके चित्रों की पहली पहचान है। उनके चित्रों की आकृतियों और उनकी भंगिमाओं में व्यंजनावृद्धि की नवीन प्रभावोत्पादकता है।

उनकी ‘वाश’ तकनीक अन्य कलाकारों से निश्चय ही भिन्न है। उनकी ‘वाश’ विधा अपने ढंग की अनूठी विधा है जिसमें वे सफेद रंग को बड़ी चतुराई से प्रयोग कर लिया करते थे जिसके कारण उनके चित्रों में एक विशेष प्रकार की रहस्यात्मक चमक आ जाती थी। इस विधा का प्रयोग कठिन अवश्य है लेकिन उपयुक्त रंग लगाने के बाद इसके परिणाम बड़े सुखद होते हैं। वे अपने चित्र के प्रत्येक भाग को अच्छी तरह ‘फिनिश’ करते थे और लयात्मक रेखाओं में तो जैसे उन्हें महारत ही हासिल थी।


एक सफल चित्रकार के हाथों में वस्त्रविन्यास चित्रण की दक्षता होनी आवश्यक है। मजूमदार जी की दूसरी विशेषता चित्रित मानवाकृतियों के लिए उपयुक्त वेशभूषा एवं सिलवटों (द्रैपरी) की नयी खोज है जो पूर्ण रूप से काल्पनिक हैं। वस्त्रविन्यास की विचित्रता एवं आकर्षक सादगी के माध्यम से वे न केवल चित्र की आकृतियों को प्रभावपूर्ण बना देते हैं वरन् उसके द्वारा वह चित्रों में समन्वय, चित्रविन्यास एवं सामान्य प्रभाव को बढ़ा देते हैं। वस्त्र-विन्यास में सिलवटों को प्रदर्शित करने के लिए रेखाओं द्वारा सपाट रंगों का प्रयोग उनकी विशेषता है जिससे चित्रों में गतिशीलता का आभास होता है। एक सफल चित्रकार के लिए यह आवश्यक भी है। मजूमदार जी ने अपने चित्रों के वस्तु-विन्यास में उतनी ही सावधानी बरती है जितनीे मानवाकृतियों की रूप-रेखा में।

वे वृक्षों एवं वनस्पतियों के चित्रांकन के द्वारा अपने चित्रों में आवश्यक वातावरण लाने में सफल हुए हैं, जो उनकी कल्पना शक्ति की देन हैं। उनके चित्रों में वृक्षों के तनों का चित्रांकन बड़ी बारीकी के साथ किया गया है और उन पर पोत (टेक्स्चर) के सफल चित्रांकन द्वारा वृत्ताकार रंगों का प्रदर्शन किया गया है। यह मात्र आलंकारिक दृष्टिकोण से किया गया है और यह सब उनकी शैली की व्यक्तिगत विशेषता है। उनके द्वारा किये पुष्पों के चित्रांकन से कवि की कल्पना का भी आभास मिलता है।

वे सर्वप्रथम रंग विशेषज्ञ हैं। मजूमदार द्वारा रचित चित्रों को देखें तो हम पायेंगे कि वे रंग-योजना में विभिन्न प्रकार के प्रयोग करते रहे हैं। रंगों की छटा का अद्भुत प्रदर्शन करनें के कारण उनके चित्रों में एक उत्कृष्ट आध्यात्मिक भाव प्रकट होता है। उनके विभिन्न रंगों से एक ही रंग की संगति का आभास होता है जिससे आत्मा को परम सुख एवं तुष्टि प्राप्त होती है। सौन्दर्यवर्द्धन हेतु रंगों का ज्वार-भाटा की तरह उठना एवं तरंगित होना यह विशेषता मजूमदार के चित्रों में स्पष्ट रूप से दिखायी पड़ती है। वे चाहे चमकते हुए तेज रंगों का प्रयोग करें अथवा मंद रंगों में धँुंधले प्रभाव को दर्शायें, उनके रंगों में उनके द्वारा प्राण फँूक दिये जाते हैं। वे रंगों में हल्के प्रभावयुक्त मंदभूत संगति के द्वारा अपना एक अलग प्रभाव बनाते हैं।

इलाहाबाद विश्वविद्यालय में उनके अनेक शिष्य चित्रकला में संलग्न होकर बड़े-बड़े पदों पर पहुचे जिनमें प्रो. रामचन्द्र शुक्ल काशी हिन्दु विश्वविद्यालय में प्राचार्य के पद पर कार्य करते हुए सेवानिवृत हुए। मजूमदार जी के प्रिय शिष्य एवं गवर्नमेण्ट कालेज आफ आर्ट एण्ड क्राफ्ट कालेज, कोलकता से प्रशिक्षित चित्रकार डॉ० श्यामबिहारी अग्रवाल उनके इलाहाबाद विश्वविद्यालय से सेवा निवृत्त होने के बाद उन्ही के स्थान पर नियुक्त हुए और उनकी कला शैली को एक ऊचाँई तक पहुचाया। भारत के प्रधान मंत्री के पद तक पहुचने वाले विश्वनाथप्रताप सिंह इलाहाबाद विश्वविद्यालय में उनके शिष्य थें। प्रधान मंत्री के पद से हटने के बाद उन्होंने चित्रकला में फिर गहरी रूचि दिखायी। उनके अन्य शिष्यों में शिक्षाविद् एस0 के0 पाल, विश्वनाथ सिंह, शकुन्तला सिरोठिया, श्री हरिमोहन मालवीय पूर्व अध्यक्ष हिन्दुस्तानी एकेडमी कुंवर संग्राम सिह, सन्तोष कुमार, विश्वनाथ सिंह, आदि का नाम उल्लेखनीय हैं। विभाग के चतुर्थ श्रेणी का कर्मचारी छेदीलाल, मजूमदार से बहुत प्रभावित था। उनके सानिध्य में रहकर उसने कई चित्र बनाये जो व्यक्तिगत संग्रह में देखे जा सकते हैं।

क्षितीन्द्रनाथ मजूमदार एक ऐसे संत चित्रकार थे जो परम वैष्णव भक्त थे। चित्र उनके हृदय से निसृत होते थे। उसके लिए उन्होंने कभी साधारण रूप से अभ्यास के किये जाने वाले स्केच नहीं बनाये लेकिन उनके चित्र जिस आध्यात्मिक धरातल पर प्रतिष्ठित है वह बहुत मधुर सुकुमार तथा भक्ति भाव से सिंचित है। वे अपने चित्रों द्वारा दर्शक को उस भाव भूमि पर ले जाने में सफल होते थे जहां रस की धारा हिलोरे लेती हैं।

क्षितीन्द्रनाथ मजूमदार एक महान कीर्तन गायक भी थे और राधाकृष्ण के भक्तिभाव में डूबकर सुन्दर पदावलियों का गायन किया करते थे और कीर्तन करते-करते वे भाव विभोर हो जाते थे। चैतन्य महाप्रभु के जीवनी से उन्हें बहुत प्रेरणा मिलती थी। वे प्रायः हीवेट रोड स्थित हरि सभा में जाया करते थे और भाव विभोर होकर कीर्तन गान किया करते थे।

अवनीबाबू अपने शिष्यों में से दो को 'सिद्ध' कहते थे क्षितीन्द्र नाथ मजूमदार को 'चैतन्य सिद्ध' तथा नन्दलाल बोस को 'शिव सिद्ध'। ये दोनों कलाकार उनकी दो ऐसी सशक्त एवं सृजनशील भुजाएँ थीं जिनके द्वारा उन्होंने भारतीय चित्रकला की एक नयी एवं अनुपम शैली को विकसित कर आगे बढ़ाया जो भारतीय संस्कृति एवं अध्यात्म का पर्याय बनकर समस्त विश्व में हमारी कला की आलौकिक आभा को बिखरने में सफल हुई। यह शैली जो हमारी प्राचीन परम्परा एवं पूर्वी कला नियमों पर आधारित थी हमारे अध्यात्म एवं दर्शन को भली-भाँति दिग्दर्शित करने में सफल हुई। इन दोनों कलाकारों ने शिल्पाचार्य द्वारा निर्देशित कला नियमों का निर्वाह करते हुए कला-साधना में अपना सम्पूर्ण जीवन अर्पित कर दिया।

नवजागरण काल की इस कला में किस कलाकार ने कितनी मात्रा में व्यक्तिगत रूप से योगदान दिया है यदि इसे देखा जाय तो हमें स्पष्ट रूप से पता चलेगा कि इस विशेष कलाधारा में एकमात्र मजूमदार जी ही ऐसे कला-साधक हैं जिन्होंने न केवल व्यक्तिगत रूप से सबसे अधिक योगदान दिया वरन् अंत तक अविकल, अविराम कला-सृजन कर कला-जगत् को निरंतर समृद्ध किया। आज देश-विदेश के अनेक संग्रहालयों एवं व्यक्तिगत संग्रहों में उनकी कृतियों को देखा जा सकता है।

डनके चित्रों में शैलीगत भिन्नता बहुत कम देखने को मिलती है अपने गुरु से जो शैली उन्होंने प्राप्त की उसी शैली में जीवन पर्यन्त चित्र रचना करते रहें लेकिन उनकी समस्त कृतियों में उनका अपना एक निजस्व है, अपनी शैलीगत मौलिकता है। केवल विषय वस्तु में ही नहीं उनके चित्रों में अन्य दृष्टियों से भी आन्तरिक उद्भावना का परिचय मिलता है। उनके विषय धार्मिक आख्यानों पर आधारित है फिर भी उनके प्रत्येक चरित्र इसी धरती के जीते-जागते लोग है। जो अपने को सहजरूप से व्यक्त करने में समर्थ हैं। उनके चित्रों में अपनी मिट्टी की वह सुगंध है जो वर्षा की पहली फुहार पड़ने पर हमें अर्विभूत कर देती है।

रेखाओं की बारीकी एवं लयबद्धता तथा रंगों का सुन्दर चयन और उत्कृष्ट कुशलता के साथ उनका प्रयोग उनके चित्रों की पहली पहचान है। शैलीगत प्रखरता तो इतनी अधिक है कि उनके चित्रों को दूर से ही देखकर कोई भी यह कह उठता है कि ये चित्र मजूमदार जी के बनाये हुये हैं। यही शैलीगत विशेषता जो उनके चित्रों में दिखाई पड़ती है वही उस महान कलाकार की अपनी थाती थी जिसके आधार पर वे स्वयं में एक शैली बन गये।

प्राचीन भारतीय चित्रकारों की भाँति वे अपनी कलाकृतियों में अपने विश्वास एवं भक्ति-भावना से ओतप्रोत थे उनके विचार अवनीन्द्रनाथ की ऊँची कल्पना से भिन्न थे। लेकिन अपनी कवितात्मक एवं संगीतात्मक चित्रण शैली के कारण उनकी कृतियों में संगीत की लहरी का आभास मिलता है। यद्यपि उनके चित्र दर्शन एवं जीवन की जटिलताओं से मुक्त हैं फिर भी अध्यात्मिकता की उड़ान इतनी सशक्त है कि उनमें ये तत्व सहज ही समाहित हो गये हैं। क्षितीन्द्रनाथ मजूमदार चित्रकार से पहले भक्त हैं इसलिए उनकी कृतियाँ भक्त की सहज, सरल पदावलियां हैं जिन्हें कलाकार भाव-विभोर हो गा रहा है। राधा-माधव की भक्ति में अकंठ डूबे इस भक्त कलाकार की कृतियों में शांति भक्ति और विश्वास की अनुपम छटा दिखाई पड़ती है।

महान् संत कलाकार मजूमदार जी ने अपने सारे जीवन में ‘चरैवेति-चरैवेति’ अर्थात् ‘चलते रहो’ का मंत्र लेकर अकेले ही (एक्ला चलो रे) चलते रहे। अभावों में पले इस कलाकार को मान-अभिमान छू तक नहीं गया था। उन्होंने चित्र-रचना को भक्ति का एक अंग माना, ध्यान माना और उसी में सारी उम्र लीन रहे। उन्होंने न जाने कितने चित्र बनाये, कौन कहाँ है, इसका कोई हिसाब ही नहीं है। परन्तु आज प्रायः सभी संग्रहालयों में उनकी कृतियों को देखा जा सकता है।

एक कलाकार अपनी अंतिम साँस तक कलाकार की तरह ही जिया। उसे लोगों ने विक्षिप्त कहा हो या भक्त, उसे तो बस राधा-कृष्ण का ध्यान चाहिए था और वह 9 फरवरी, 1975 गंगा किनारें चिरलीन हो गया।

(डॉ॰ श्यामबिहारी अग्रवाल)

पता: 12 चक (जीरो रोड), 
इलाहाबाद।
मो- 8840443537

Comments

  1. किसी न किसी रूप में आपके द्वारा महान कलाकारों को पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त होता रहा जो अत्यन्त सराहनीय है एवं हम हृदय से आभार व्यक्त करते हैं।

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