कला गुरु श्री तारा पदों मित्रा: राजस्थान स्कूल ऑफ आर्ट्स में क्ले-मॉडलिंग विभाग के संस्थापक

तारा पदों मित्रा जी अपने शिल्प के साथ
"अरे तुम कलाकार हो क्या...?? तुम्हारे बाल तो बिल्कुल कलाकारों जैसे हैं"

अस्पताल के पलंग पर लेटा बालक मित्रा नर्स के यह शब्द सुनकर उस क्षण सोच भी नहीं पाया होगा कि वो एक दिन ऐसा महान कलाकार बन जाएगा जिसे लोग सदियों तक याद करेंगे। किंतु यह सत्य है कि यहीं से 'कलागुरु' स्वर्गीय तारा पदों मित्रा के अंतःस्थल में कलाकार बनने की प्रेरणा ज्योति प्रज्वलित हुई और फिर पेंसिल से टेढ़ी-मेढ़ी आकृतियों का प्रयास...........।

संघर्ष और परिश्रम का प्रतिफल ---- सरस्वती वरदान। कला के सर्वोच्च शिखर पर पहुंचने वाले प्रत्येक कलाकार का अतीत यही है। फिर वह स्व. श्री तारा पदों मित्रा इसके अपवाद कैसे हो सकते थे। प्रतिष्टित जमीदार परिवार में जन्मे बालक मित्रा के सर से डेढ़ माह की आयु में ही पिता श्री खिरोद प्रसाद मिश्रा का साया उठ गया, एवं 9 वर्ष की आयु में मातुश्री हीरबाला के ममत्व ने भी आंखें मूंद ली। अब रह गया निःसहाय अकेला मित्रा। कहने को तो मित्रा को सात बड़े भाई बहनों का सहारा हो सकता था, किंतु वास्तविकता कोई पूछता उस निराश मित्रा से तब।

15 मई 1966 को प्राचार्य श्री रामगोपाल विजयवर्गीय की सेवानिवृति के अवसर पर लिया गया ग्रुप फ़ोटो।
कोलकाता के राजरहाट विष्णुपुर में 13 अप्रैल 1913 को जन्मे मिश्राजी का लालन-पोषण उनके बड़े बाबा साहब के सुपुत्र श्री फणी भूषण मित्रा की देखरेख में हुआ, जिन्होंने श्री मित्रा को पुत्रवत स्नेह प्रदान किया और मित्रों से बहुत बड़े विद्वान की अपेक्षा की। किंतु परिस्थितियों को यह स्वीकार नहीं था। बाल्यकाल में मिश्रा जी गायन पतंगबाजी, पतंगबाजी, पहलवानी और मछली पकड़ने में बहुत रुचि रखते थे। 

पारिवारिक वातावरण से निराश 17 वर्षीय मिश्रा के कानों में अस्पताल में सुने नर्स के यह शब्द लगातार गूंजने लगे। "अरे.........तुम कलाकार हो क्या.............? और परिणाम स्वरूप 1930 में आपने "मेयो कॉलेज लाहौर" में मॉडलिंग  कक्षा में प्रवेश प्राप्त किया। कर्तव्यनिष्ठ, कठोर परिश्रम तरुण मित्रा को शीघ्र ही सर्व श्री समरेन्द्र नाथ गुप्ता (प्रिंसिपल) भवेशचन्द्र सान्याल, महादेव शोहरे, अब्दुल हमीद खां और मोहम्मद हुसैन आदि गुरुजनों का स्नेह दान प्राप्त हो गया।

अपने मित्रों के उतरे हुए कपड़े जूते। को ठीक-ठाक करा कर गुजर-बसर करने वाले कला के इस साधक को कॉलेज समय के पश्चात मिलों की दूरियां नापते, लोगों ने घरों में काम करने जाना जीवनक्रम था। 

द्वितीय वर्ष के विद्यार्थी मित्रों ने कॉलेज में होने वाली प्रदर्शनी में तीन बार भाग लिया और तीनों बार आपको उत्कृष्ट कलाकृतियों पर "गवर्नर प्राइस" मिला। चौथी बार जब आपने एक नर्तकी की नृत्य मुद्रा कलाकृति को प्रतियोगिता में रखा तो उसे प्रिंसिपल समरेन्द्रनाथ गुप्ता ने किसी की नकल बता दिया। आत्म सम्मान के धनी मित्रा ने पुनः कभी भी प्रदर्शनी या प्रतियगीत में भाग नही लिया।

लाहौर में पंचवर्षीय पाठ्यक्रम को उतीर्ण करने के पश्चात आपने 1 वर्ष के लिए वहीं अन्य विषय की कक्षाओं में प्रवेश ले लिया तथा एक साल वहीं रहकर शिक्षक के रूप में कार्य करते रहे। 1936 में वाइस प्रिंसिपल श्री भवनेशचन्द्र  सान्याल ने अपना स्टूडियो स्थापित कर लिया था,अतः अतिरिक्त समय में आप वहां भी कार्यरत रहे थे। 

1935 में महाराजा स्कूल ऑफ आर्ट्स जयपुर, के प्रिंसिपल श्री कुशल कुमार मुखर्जी का मेयो कॉलेज लाहौर में आगमन हुआ। श्री मुखर्जी ने जब मित्राजी का कार्य देखा तो वह बहुत प्रभावित हुए तथा श्री समरेन्द्रनाथ गुप्ता से मित्राजी को जयपुर भेजने का आग्रह किया। श्री मुखर्जी महाराजा स्कूल ऑफ आर्ट्स में मॉडलिंग कक्षाएं प्रारंभ करना चाहते थे। इस तरह अपने आप में अकेले मित्राजी का कारवां जयपुर की ओर चल पड़ा। 

जयपुर में साक्षात्कार हेतु स्वनिर्मित कुछ कलाकृतियों के साथ मित्राजी उपस्थित हुए तो डायरेक्टर श्री विलियम वैन्स भी इतनी कम उम्र में मित्रा जी की इतनी कला कुशलता को देखकर चकित रह गए। 

1937 में मित्रा साहब महाराजा स्कूल ऑफ आर्ट्स में अध्यापक के रूप में नियुक्त हो गए। आपने जितना कुछ अपनी मेहनत और लगन से अर्जित किया था, उसे उतनी ही सुगमता से खुले हाथों अपने विद्यार्थियों पर लुटाते रहे। यहां मित्रा जी अपना एकाकीपन भूल गए और खो गए विद्यालय परिवार में। 1950 में जब स्कूल ऑफ आर्ट्स। एंड क्राफ्ट का विभाग अलग कर नई संस्था के रूप में दूसरे भवन में स्थानांतरित किया गया तो आपको बहुत खेद हुआ। अतः आपने पुनः विद्यालय के पुराने भवन को प्राप्त करने के लिए सराहनीय योगदान दिया। 

अनुभूति की अभिव्यक्ति ही कला है। व्यक्ति जैसा अनुभव करता है वैसा ही अपनी कला में उतार देता है मित्रा जी की मूर्तिकला में यथार्थवादी शैली की प्रमुखता रही है। जहां उन्हें उन्होंने मानव की विवशता व निर्धनता को  साकार किया है, वही व्यक्ति के साहस, शौर्य एवं विराटता को भी अपनी कृतियों में सजा दिया है 1957 में आप ने मुख्यमंत्री के आवास पर 'बंगाल का एक किसान' नामक मूर्ति बनाई जिसकी काफी प्रशंसा हुई। प्राकृतिक सौंदर्य, जीवंत माँसलता वह मानव की आज्ञान्तरिक संवेदनाएं आपके मूर्तिशिल्प में प्रेरणा स्त्रोत रहे हैं। 

बाल ब्रह्मचारी स्वर्गीय तारा पदों जो की टी.पी. मिश्रा के नाम से प्रसिद्ध थे। मूर्तिकला के अतिरिक्त चर्मकला, मिट्टीकुट्टी कला, वाशपेंटिंग सिल्क पेंटिंग में भी कुशल व अनुभवी कलाकार थे। चूंकि संगीत में नाटक से आपको बचपन से ही लगाव था। अजय आगे चलकर आप नाटकों में कुशल निर्देशक रहे तथा 1935-36 में दिल्ली लाहौर वह जोधपुर आकाशवाणी पर एक गायक के रूप में कार्य किया। 

मूर्तिकला विभाग में प्राध्यापक डॉ सुमहेन्द्र ने 1982 में शिल्पगुरु तारा पदों मित्रा जी की मूर्ति बनाते हुए।
कला को ईश्वरीय वरदान मानने वाले कलाकार श्री मित्रा की मान्यता थी कि एक कलाकार को ड्राइंग पेंटिंग व मॉडलिंग आदि सभी कलाओं का बोध होना चाहिए तथा कलाकार के लिए एकाग्रता व चरित्र की दृढ़ता आवश्यक है। 

1968 में आप राजस्थान स्कूल आफ आर्ट्स (महाराजा स्कूल ऑफ आर्ट्स जयपुर) से सेवानिवृत्त होने वाले थे, किंतु इस विद्यालय में 32 वर्षों की उनकी कला साधना एवं अकथनीय  अन्य सेवाओं को देखते हुए कोई नहीं चाहता था कि आप इस विद्यालय परिसर से पृथक हो जाएं। जिस विद्यालय में मॉडलिंग कक्षाओं के जनक आप स्वयं ही थे। अतः आप के कार्यकाल को 3 वर्ष के लिए और बढ़ा दिया गया। 

1971 में विद्यालय से सेवानिवृत्त हो जाने के पश्चात भी आप अपनी कला साधना में लगे रहे विद्यालय समय से ही आप इस कला संबंधी अन्य संस्थाओं का भी कार्य देखते रहे थे। संस्थाओं के अतिरिक्त अब अपने निवास पर भी आप अंतिम दिनों तक कला साधना में खोए रहे। 

1975 में प्रकाशित कलावृत्त का प्रथम वार्षिक अंक जिसमे यह आलेख छपा है।
दूसरे की परेशानी व तकलीफ के समय हर संभव राहत पहुंचाने वाले मिश्रा जी को ही घोर कष्ट ने आ घेरा, वह गायक मित्रा जिसके कंठ से सात स्वरों का माधुर्य था, उसका स्थान ले लिया भयंकर रोग कैंसर ने। बहुत प्रयास किया गया इस रोग से छुटकारा दिलाने के लिए जयपुर व मुंबई के अस्पतालों में किंतु कुछ नहीं हो सका देखते-देखते वह दिन आ गया जब मिट्टी में जीव उकेरने वाला कलाकार स्वयं मिट्टी हो गया।

रह गए शेष ............ उनकी अमिट यादें, उनकी अभर कलाकृतियों और उनके नाम के आगे चलने वाला। बहुत बड़ा शिष्य वर्ग। 

● मनमोहन "मनु"

नोट: कलावृत्त के संस्थापक एवं मूर्तिकला के प्राध्यापक डॉ सुमहेन्द्र ने 1982 में अपने शिल्प गुरु तारा पदों मित्रा जी का कुर्सी पर बैठे जैसे कि वे विद्यार्थियों को पढ़ाते समय बैठा करते थे उसी मुद्रा में उनकी मूर्ति राजस्थान स्कूल ऑफ आर्ट्स के मूर्तिकला विभाग में बनाई थी जो आज भी इस संस्था के पास सुरक्षित है।

Comments

  1. प्रथम गुरु श्री को सादर शत् शत् नमन ..... !

    लेकिन जिस शिल्पकार ने स्कूल आंफ आर्टस के मूर्तिकला विभाग भी नींव रखकर उसे बहुत ही समृद्ध बनाया ..... बेहद अफसोसजनक हैं कि आज विभाग लगभग बंद होने के कगार पर हैं ..... !!!

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  2. Pranam ayese kala guru ko jo ek murtikar painter ek gayek natakkar really mahan kalar the

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  3. मित्रा जी की जीवनी पढ़ने का सौभाग्य मिला ।पूजनीय जयपुर के सीनियर आर्टिस्ट सन्दीप सुमहेन्द्र जी ने मुझे लिंक भेजा। अंत समय मित्रा जी को कैंसर हो गया ।विधि के विधान के आगे सब नतमस्तक ह।,🙏

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  4. कलावृत्त पत्रिका में छपे आलेख द्वारा शिल्पगुरू तारा पदों मित्रा की जीवनी एवं राजस्थान स्कूल ऑफ आर्ट की ऐतिहासिक जानकारी प्राप्त हुई।कला की विभिन्न विधाओं में निपुणता से ओतप्रोत उनका व्यक्तित्व बहुत प्रेरणादायी हैं।उनकी कलाकृतियों के संबंध में और अधिक जानकारी प्राप्त करने की इच्छा है।आलेख के लिये श्री ममनमोहन मनु एवं सन्दीप जी को साधुवाद।

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    1. Medam ji, thankyou very much for your valuable words.

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  5. Salute to great art master sir mitra ( Mishra ji ) ..
    He was surprise for Rajasthan school of art .
    Lots of regards for him ..

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  6. Salute to great art master sir mitra ( Mishra ji ) ..
    He was surprise for Rajasthan school of art .
    Lots of regards for him ..

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