कलाविद रामगोपाल विजयवर्गीय - जीवन की परिभाषा है कला : डॉ. सुमहेन्द्र
ई.बी. हैवल के प्रयासों से भारतीय कला की सोच में, रचना के स्तर पर जो देशज रुझान आया वह तत्कालीन स्वदेशी और स्वतंत्रता आंदोलन की तरह पूरे देश में व्याप्त हो गया। बंगाल शैली या पुनर्जागरणकाल शैली के नाम से भारतीय कला को तकनीकी स्तर पर नये रूप में प्रस्तुत करने की समझ चीन से आई, स्याह कलम चित्रकारी तथा जल रंगों से चित्र निर्माण की तकनीक के कारण। भारतीय टेंपरा पद्धति और चीनी जल रंगों की परंपरा आपस में मिली और देश में वॉश तकनीक में चित्र बनने लगे। बंगाल से विशेषकर ठाकुर परिवार के शिष्यत्व में पनपी लम्बी शिष्य परंपरा, पूरे देश में फैलकर, इस कला आंदोलन को फैलाने में सहायक बनी। जयपुर में कला शिक्षा की विधिवत शुरुआत के लिए 1864 में तत्कालीन महाराज सवाई रामसिंह ने मदरसाए हुनरी के नाम से एक संस्था की शुरुआत की, जो कला विद्यालय न लग कर कारखाना ज्यादा लगता था। चिकित्सा सेवा के एक अंग्रेज अधिकारी सी.एस. वैलेंटाइन ने मद्रास आर्ट स्कूल से कुछेक अध्यापकों को जयपुर लाकर कला शिक्षा को व्यवस्थित रूप दिया। इस अंग्रेज अधिकारी के बाद बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में इस कला संस्था की बागडोर बंगाल शैली के दक्ष कलाकारों असित कुमार हलदार, हिरणयमय रायचौधरी, के.के. मुखर्जी आदि के हाथों में रही, जो क्रमशः संस्था के प्राचार्य बने।
बालक रामगोपाल विजयवर्गीय ने पहले 10 वर्ष की आयु में ही इस संस्था में प्रवेश लिया था परंतु मन न लगने के कारण एक वर्ष बाद संस्था छोड़ दी। यह असित कुमार हलदार का प्राचार्य काल था, लगभग 1915 में, 19 वर्ष की आयु में उन्होंने यहां पुनः प्रवेश लिया। प्रवेश के समय लगभग आधा सत्र निकल चुका था परंतु काम का स्तर देखकर विजयवर्गीय को सीधे अंतिम (पांचवे) वर्ष में प्रवेश दे दिया गया। इस तरह आठ माह के अध्ययन के बाद ही इन्हें डिप्लोमा मिल गया। यह 1924 का समय था जब संस्था के प्राचार्य श्री राय चौधरी थे। इस काल की चर्चा करते हुए विजयवर्गीय जी बताते है कि उनमें कला के प्रति आकर्षण उनके सहपाठी सुधांशु भूषण रायचौधरी ने पैदा किया था। गोपाल घोष, गौतम, शम्भूनाथ मिश्र और शिव नारायण चौगान इनके सहपाठी रहे थे।
विजयवर्गीय जी का जन्म 1905 में बंगभंग आंदोलन के समय हुआ था। प्रारम्भिक स्कूली शिक्षा के लिये वे किसी मदरसे में नहीं गए। न ही किसी जोशी या पंडित से दीक्षा ली। उनके पिता श्री भंवर लाल जयपुर के अंतर्गत सवाई माधोपुर के बालेर ठिकाने में कामदार थे, अतः जागीरदारों का भाव पारिवारिक संस्कारों में समाया हुआ था। सम्पन्नता भी थी। इस कारण उस समय के प्रचलन के अनुसार इन्हें अरबी-फारसी पढ़ाने घर पर ही मौलवी साहब आते और अदब-कायदे सीखने की जगह थी दूसरी, जहाँ 14 वर्षीय विजयवर्गीय को स्वयं जाना पड़ता था, यह जगह थी एक तवायफ का कोठा। उस शिक्षा में दीक्षित विजयवर्गीय जी अब तक उठने-बैठने, बोलने-चलाने के वह अदब-कायदे आज तक निभा रहे है। पांच आदमियों के बीच बैठकर ये कभी उबासी नही लेंगे, हंसेंगे भी तो बहुत अदा से, बिना दाँत दिखाये और यदि ज्यादा तेज हंसी आ भी गई तो मुँह बंद ही रहेगा। पान की लाली से रचें उनके होंठों के बीच की रेखा ऐसी लगती है मानो किसी नायक की शबीह बनाते समय कलाकार ने होंठों की खुलाई कर्मि रंग की सहज रेखा से कर दी हो। उनके छोटे से पान में एक-दो दाने सुपारी और इलायची से अधिक कुछ नहीं होता। कोई पान वाला यदि कुछ ज्यादा डाल भी दे तो वे उसे खोलकर और अनावश्यक चीजे बाहर निकल कर, संतुष्ट होने के बाद ही पान खाएंगे।
विजयवर्गीय जी में बचपन से ही कला के प्रति विशेष आकर्षण रहा हैं परंतु पारिवारिक मर्यादा और पिता के सामंती संस्कारों ने उन्हें इस ओर जाने से अनेक बार रोका। इस कारण उन्हें कई बार अनाज की दुकान पर भी बैठना पड़ा और सरकारी मुलाज़मत के रूप में चुंगी वसूल करने वाला राहधारी भी बनना पड़ा। पर हर बार गड़बड़ होता गया। कहीं फिट न हो सके क्योँकि बनना तो कलाकार ही था उन्हें, फिर कोई दूसरा काम कैसे रास आता। हाँ, इनकी माता ने इन्हें कलाकार बनने से कभी नही रोका। उनके ही सम्बल के सहारे धीरे-धीरे ये अपने गंतव्य की और बढ़ते रहे।
कलकत्ता में विजयवर्गीय जी बृज मोहन वर्मा से भी मिले। श्री वर्मा उन दिनों बनारसी दास चतुर्वेदी के संपादन में प्रकाशित 'विशाल भारत' के सहायक संपादक थे। विशाल भारत के कार्यालय में ही विजयवर्गीय जी का परिचय उपन्यासकार भगवती चरण वर्मा से हुआ। और फिर भगवती बाबू के माध्यम से इनका परिचय एक पुस्तक विक्रेता ठाकुर अयोध्या सिंह से हुआ, जिन्होंने प्रयास कर एक पखवारे के अंदर इनके चित्र दस हजार रुपयों में बिकवा दिए। अपने चित्रों को बेचकर उस जमाने में कोई इतनी राशि कमा सकता है, यह आश्चर्यजनक था। प्रदर्शनी की सफलता और चित्रों की बिक्री के साथ ही प्रसिद्धि भाषाविद प्रो. सुनीति कुमार चटर्जी ने प्रदर्शनी की प्रशंसात्मक समीक्षा "अमृत बाजार पत्रिका" में प्रकाशित की। बाद में (1936 के आस-पास) मॉर्डन रिव्यु ने इनके 14 चित्रों का एक एलबम प्रकाशित किया, जिसकी प्रस्तावना भी प्रो. चटर्जी ने ही लिखी थी।
कभी-कभी विजयवर्गीय एक संस्मरण सुनते हैं - 1936 में ही कलकत्ता में सेठ रामदेव चोखानी ने उनका एक चित्र दो सौ रुपये में खरीदा और पैसे के साथ झुककर प्रणाम करने की मुद्रा में हाथ भी जोड़े। इस सम्मान को विजयवर्गीय न तो समझ पाए और न ही पचा पाये। आखिर यह बात उन्होंने एक बार अपने अंतरंग रायकृष्ण दास को बताई तो उन्होंने दूसरी ही बात की कि यह अच्छा नहीं लगता। मजा तो तब आता कि जब कुछ मोलभाव होता और सेठ कुछ कम करने के लिए कहते। रायकृष्ण दास से एक अन्य भेंट का भी विजयवर्गीय जी उल्लेख करते है जब पहली बार 1928 में कलकत्ता जाते समय वे बनारस रुके थे। एक बार रूपम (संपादक - ओ.सी. गांगुली) में शैलेन्द्र नाथ डे के विषय में एक आलेख प्रकाशित हुआ था, जिसके लेखक राय साहब ही थे। बस तभी से उनसे मिलने की इच्छा इनमें पनप रही थी। उन्हें खोजते-खोजते विजयवर्गीय जी नागरी प्रचारिणी सभा पहुंचे। तब तक सरस्वती में इनकी कहानियाँ और कवियाएँ भी प्रकाशित हो चुकी थी, अतः राय साहब से परोक्ष रूप में परिचय तो पहले हो ही चुका था। नागरी प्रचारिणी सभा से उनका पता मिला और जब राय और विजयवर्गीय जी मिले तो बहुत सी बातें हुई। उन्होंने कला भवन के संकलन के लिए इनके छ: चित्र खरीदे। इसके साथ ही मुगल कलम के अंतिम चित्रकार उस्ताद राम प्रसाद से इनका एक चित्र भी बनवाया। उस समय युवक विजयवर्गीय अपने जीवन का 24वां बसंत देख रहे थे। रायकृष्ण दास ने ही इन्हें पुराने चित्रों को समझने की सीख भी दी और उन्हें खोज कर संकलित करने की प्रेरणा भी। उनका कहना था कि स्वान्तः सुखाय के साथ चित्रों का व्यापारिक महत्व भी ही सकता है। इस प्रकार इस कलाकार के मन में संग्राहक की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन देने का श्रेय राय साहब को जाता है। 1936 में इनकी दूसरी यात्रा पर डॉ. एस. के. बर्मन, हनुमान प्रसाद पोतदार घनश्याम दास बिड़ला, गजानंद बिड़ला और एक अंग्रेज अधिकारी एडवर्ड ने इनके चित्र खरीदे थे।
अपने चित्रों में श्रृंगारिकता आने का कारण आप संस्कृत और बृज भाषा में वर्णित श्रृंगारिकता के प्रभाव से मानते है। चित्र रचना के साथ--साथ कविता और कहानी लेखन का कार्य भी चलता रहा था। इनकी कविता और कहानी सबसे पहले 1927-28 में 'सरस्वती' ने प्रकाशित की थी। इस तरह चित्रों के साथ कविता और कहानी छपने का भी क्रम शुरू हो गया था। इन सबने आपको प्रतिष्ठित करने में अपनी-अपनी भूमिकाएं निभाई।
संस्मरणों और घटनाओं के नाम पर बहुत कुछ है जिसे बयान किया जा सकता है। कलाकार विजयवर्गीय के रचना संसार को देखें तो पेंसिल, पेन, कलम या ब्रश जो कुछ भी सामने आ जाता, उसे लेकर इनका हाथ चलता ही रहता। फिर चाहे कोई बात भी चलती रहे पर साथ-साथ हाथ भी चलता रहेगा। ज़मीन (फलक) के मामले में भी इन्होंने कभी कुछ गंभीरता से नही सोचा। वह चाहे अखबार हो या कोई पत्रिका, चिठ्ठी हो या बेकार लिफाफा, नई-पुरानी किताब हो या रद्दी कागज या बिजली-पानी के बिल जो भी सामने आया वही रेखाओं से रंग गया। श्री बृज मोहन की टिप्पणी इनके इस स्वभाव का सटीक चित्रण करती है - 'विजयवर्गीय जी बैठे चित्र बना रहे हैं। आकृति बन चुकी है रंग भरा जा रहा है। सहसा रंग समाप्त हो गया। बाजार में रंग मिलता नहीं, कलकत्ते से रंग मंगवाना पड़ेगा लेकिन कलकत्ता से रंग आने तक की ताब किसको। सामने सफेद जूते पर लगाने की पॉलिश रखी है। विजयवर्गीय जी ने उसे उठाकर घोला और उसी से चित्र बनाकर पूरा कर दिया। जूते की पॉलिश से बना हुआ यह चित्र भारत के एक प्रसिद्ध कला संग्रह में आदर पूर्वक सुरक्षित है। व्यसन तथा प्रेरणाओं से सदा लिप्त रहकर भी कभी किसी पक्ष के दास नही बने आप। उस जमाने मे 10-20 हजार एक साथ कमा लिए तो जाहिर नहीं होने दिया और इससे ज्यादा गवां दिए तो जाहिर नहीं होने दिया। स्केचिंग की अनवरत साधना का ही सुफल है कि विजयवर्गीय की रेखायें उनकी सी ही कोमल, शिष्ट तथा नज़ाकत और नफासत से सराबोर मिलती हैं; वह चाहे नारी आकृति हो या पुरुष आकृति इकहरे बदन के साथ पतली कमर, लम्बे हाथ, लम्बी अंगुलियां इनकी विशेषता रही है। विजयवर्गीय जी स्वयं में एक शैली हैं जिसकी अपनी एक पहचान है। इतनी सशक्त कि किसी विद्यार्थी के चित्र किसी भी भाग पर यदि संसोधन कर दिया तो यही भाग विजयवर्गीय की तूलिका-स्थान की अलग पहचान बन जाता। उनके शिष्यों की एक लम्बी परम्परा है।
विषय की दृष्टि से स्वयं कवि होने के कारण इनके चित्रों में काव्यात्मक कल्पना, जिसमें थोड़ा अतिशयोक्ति का पुट भी होगा, प्रधान रूप से देखा जा सकता है। मेघदूत और उमर खैयाम इनके सर्वाधिक प्रिय विषय रहे हैं। रामायण, महाभारत, रागमाला, बारहमासा, नायिका भेद, रसिकप्रिया, बिहारी सतसई आदि काव्यात्मक कथ्यों पर आधारित विजयवर्गीय जी ने अनेक चित्र बनाये हैं; परंतु सबसे पहली चित्र श्रृंखला आपने अभिज्ञान शाकुंतलम पर रची थी। इनकी तूलिका ने जिस विषय की भी कल्पना की उसे ही समृद्ध और दर्शनीय बना दिया। दैनिक जीवन के चित्र, दृश्यचित्र या व्यक्ति चित्र जो भी बनाये गये उन सब में कलाकार की मौलिकता और शैलीगत विशेषता हावी रही। यथार्थवादी शैली में भी इनका शैलीगत स्वरूप छलके बिना नहीं रह सका। यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि इनका सशक्त रेखांकन और अनोखी कल्पनाशीलता तथा बहुमुखी प्रतिभा राजस्थान के लिए विजयवर्गीय के रूप में एक गौरव है। ग्राम्यबालाएं, वृद्ध किसान, बोझ ढोते मजदूर और इनके साथ विषय को और समृद्ध करने की दृष्टि से आसपास घूमती बैठी गायें, पसरकर पड़े कुत्ते, चहकती चिड़ियाँ, फुदकती गिलहरियाँ आदि वातावरण का ऐसा प्रभाव उत्पन्न करती है कि चित्र में प्रकृति सजीव हो उठती है। आपके चित्रों में लालित्य, संतुलन और संयोजन हर बार नवीनता लिए मुखरित होता है, अतः एक के बाद एक और पुनः एक और चित्र या रेखांकन आदि देखने की लालसा बनी रहती है। शंकर देव विद्यालंकार ने एक बार इनके चित्रों के विषय मे लिखा था - "आपके कई चित्र इतने सुंदर, भावपूर्ण और तत्कालीन वातावरण से परिवेष्टित होते है कि उनको देखते हुए दृष्टा हठात् अपने को सहस्त्रों वर्षों पूर्व के वातावरण में बैठा हुआ अनुभव करने लगता है। (दैनिक हिंदुस्तान, 1936)
कवि और लेखक के रूप में भी विजयवर्गीय जी कम चर्चित नहीं रहे हैं। इनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनमे 'अभिसार निशा' पुस्तक पर इन्हें राजस्थान साहित्य अकादमी (1955) पुरस्कृत कर चुकी है। 'चित्रगौतिका' में कलाकार ने राजस्थान की परंपरागत चित्रशैलियों का वर्णन कविता के माध्यम से किया है। 'राजस्थान की चित्रकला' विषयक पुस्तक कलाकार ने उस समय लिखी थी, जब राजस्थान की कला के विषय में शोध नगण्य से थे तथा इनकी विभिन्न शैलियों को कला जगत में अपेक्षित पहचान बनाने का अवसर ही नहीं मिला था। इन्होंने अपने कुछ त्वरित रेखांकन लिथो पर भी छापे हैं, जिनमें चित्रोपम ताजगी देखी जा सकती है। ऐसा नहीं है कि सिर्फ परंपरागत शैली के रूपों में ही आपने चित्र रचना की हो। आधुनिक शैली के रूप-ढंग अपनाये हैं इन्होंने, लेकिन आकारविहीन रूप विजयवर्गीय जी को कभी रास न आये।
विजयवर्गीय जी का मानना है कि कला जीवन की परिभाषा है, संस्कार है। चित्रकला का ध्येय आनंद की उपलब्धि और परमानंद की प्राप्ति है। वो लौकिक विषय नहीं, अलौकिक विषय है। यह बहिर्जगत का व्यापार नहीं, अन्तर्जगत का विषय है जैसे सौन्दर्य का उपासक रूप की साधना से रसमयी सिद्धि लेकर आनंद तक पहुंचता है और आनंद से परमानंद का सामीप्य ग्रहण करता है। उनके शब्दों में चित्रकला का यह संक्षिप्त परिचय है। वहीं उनका कहना है कि प्रत्येक मानव चित्रकार है। अनेकों चित्रों के रूप में वह प्रकृति के दर्शन करता है, उस पर मुग्ध होता है। इस चित्रमय जगत में वह स्वयं चित्र भी है और चित्रकार भी।
राजस्थान के समकालीन चित्रकारों में आज जो देशज भावना प्रतिलक्षित होती है उसका श्रेय मूल रूप में श्री विजयवर्गीय को ही जाता है। राजस्थान ललित कला अकादमी के स्थापना काल से ही आप उससे सक्रिय रूप से जुड़े रहे और उसके पहले रत्न सदस्य होने का गौरव भी आपने पाया। यहीं नहीं 'कलाविद' की उपाधि से भी अकादमी ने आपको 1970 में विभूषित किया। इनकी लम्बी कला सेवाओं का सम्मान करते हुए भारत सरकार ने इन्हें 1984 में 'पद्मश्री' से अलंकृत किया और 1987 में राष्ट्रीय ललित कला अकादमी ने भी इन्हें अपना 'रत्न सदस्य' चयनित किया।
'अलकावली' की भूमिका (1949) से इस बहुमुखी कलाकार के अंतस का स्पष्ट आभास मिलता है - "मैं अपने को विवश पाता हूँ। मैंने कविता लिखने का प्रयास नहीं किया स्वयं कविता ने ही मुझे बाध्य किया है। मैंने उसका दरवाजा नहीं खटखटाया और न मैंने सरस्वती देवी से प्रार्थना की कि तुम मेरे अंतर में आकर विराजमान हो जाओ। मैंने तो कहा था भगवती मुझ पर दया करो, मैं आपकी कृपा कटाक्ष का पात्र नही हूँ। मैं जो कुछ कर रहा हूँ वह भी तुम्हारा ही आरधन है"
और उन्हीं की पंक्तियों के साथ मैं अपनी लेखनी को यहां विश्राम देता हूँ:
विजयवर्गीय की प्रकाशित रचनाएं
कला विषयक : राजस्थानी चित्रकला, चित्रकला की रूपरेखा, विजयवर्गीय पिक्चर एलबम (कलकत्ता), विजयवर्गीय पिक्चर एलबम (इलाहबाद), मेघदूत चित्रावली, बिहारी सप्तक, पिक्चर एलबम, रंग रेखा तथा गीत गोविंद (दोनों में ही लिथो चित्र), रागमाला चित्रावली, राजस्थान के प्राचीन रेखचित्र)
A complete art life of late sir Ram Gopal Vijayvargiya ji by writing of Late Dr. Sumhendra sharma ji ..thanks kalavratt for share this great art story ..
ReplyDeleteयोगेन्द्र जी, लेख पर आपके विचारों के लिए बहुत बहुत आभार एवं धन्यवाद, वाकई ऐसा लगता है कि हमारे सामने वे स्वयं प्रत्यक्ष रूप में अपनी बात कह रहे हो।
Deleteऐसा सम्पूर्ण जीवन परिचय पढ़ कर आनंद आ गया, इतनी जानकारियां पहले किसी पुस्तक में नहीं मिली,धन्य हो गया पढ़कर. गुरुदेव को सादर नमन.
ReplyDeleteराम जी मैं स्वयं हत्प्रभत और आश्चर्यचकित हो गया पिताश्री का ये लेख पढ़कर इसीलिए उन्होंने आदरणीय अखिलेश निगम जी को अपने पत्र में लिखा था कि "इतनी मेहनत तो मेरे गाइड ने भी नही करवाई मुझसे"
Deleteश्रधेय रामगोपाल जी स्वयं सामने आ जाते है इसमें लिखे संस्मरणों को पढ़कर।
बहुत महत्वपूर्ण दस्तावेज को आपने ब्लॉग पर साझा कर हमें इससे रूबरू होने का सौभाग्य प्रदान किया इस हेतु आपका आभार
ReplyDeleteप्रिय अजय जी, इसके लिए विशेष रूप से तो मैं आभारी हूँ श्री अखिलेश निगम जी का की उन्होंने अपने संग्रह से ये आलेख मुझे प्रकाशन के लिए उपलब्ध करवाया। आपकी सराहना के लिए भी आभार एवं धन्यवाद 👍🌹
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