सामाजिक संदर्भों को जीती प्रो. बी. पी. काम्बोज की चित्र कृतियाँ : डाॅ. एस. वर्मा

       प्रकृति अपने विविध रूपों में सभी को आकर्षित करती रहती है। प्रो. काम्बोज को भी बचपन से इसने अपने विशुद्ध रूप में सदैव प्रभावित भी किया और प्रेरित भी। उस समय का देहरादून (प्रो. काम्बोज का जन्म स्थल) एक छोटा पर शांत व सुरम्य वातावरण और सरल व सहज स्वभाव वाले लोगों का नगर था। बस्ती से निकलते ही थोड़ी दूर पर खेत, फलों व चाय के बागान और घने वनों से आच्छादित सुरम्य दून (घाटी) का दर्शन होता था। नगर में और आसपास छोटी कच्ची व पक्की नहरों का जाल था तो इसके थोड़ी दूर पर ही चारों ओर पहाड़ियों से घिरे, छोटे-बड़े विषम आकृतियों वाले गोलाकार शिलाखण्डों से टकराती, बलखाती, पहाड़ी नदियाँ व नाले घाटी की छटा को एक नैसर्गिक रूप प्रदान करते थे। सारा वातावरण बड़ा मनमोहक था। प्रसिद्ध लेखिका ’डाॅ. लक्ष्मी श्रीवास्तव’ के शब्दों में - 

“वस्तुतः कलाकार प्रकृति के अनगिनत रूपों की सौन्दर्यमयी सृष्टि का आस्वादन और जनजीवन के यथार्थ भोगों के भावों के साथ जीवनयापन करते हुए उससे प्रेरणा पाता है, और अभिव्यक्ति के लिए जीवन और सौन्दर्य को वह महसूस करता है अपनी कल्पना शक्ति और सृजन शक्ति के माध्यम से सुन्दरतम् कलाओं के रूप में उसे सृजित करता है।”1 

अतः प्रो. काम्बोज भी हमेशा स्वयं को प्रकृति के बहुत निकट मानते रहे हैं। उन्हें वृक्ष, फूल, पौधे, पत्तियाँ, घास, झरने, पहाड़, बादल, पत्थर, नदियाँ और यूं कहें तो समूची प्रकृति उन्हें अपनी ओर आकर्षित करती रही है और वह उसमें तल्लीन होकर मनुष्य जीवन की गहरी आस्था पाते रहे हैं। उनका जन्म देहरादून में हुआ जो प्रकृति की गोद में बसा है उनके प्रकृति प्रेम का यह भी एक कारण रहा है। हाँलाकि वह आगरा और दिल्ली जैसे शहरों में भी रहें हैं परन्तु बाल्याकाल से ही प्रकृति की गोद में पले-बढ़े होने के कारण वह कभी भी प्रकृति के प्रति अंतरंगता से विमुख नहीं हो पाये। 

प्रो. काम्बोज के अनुसार 'कब और किन कारणों से ऐसा हुआ-यह याद करना तो कठिन है, पर हाँ मुझे बस्ती से दूर, वनों से घिरे स्थलों के बीच घूमना बड़ा सुकून देता था।’ घने वन तथा उनके बीच से बहती तेज हवा से उत्पन्न विभिन्न विचित्र ध्वनि और पेड़ों पर आश्रित झींगुरों की अबाधित लयबद्ध गूँज, देवदार के वृक्षों से झाँकती हिमालय की बर्फीली चोटियाँ, सूर्य की गति के साथ सूर्योदय से सूर्यास्त तक बदलते घाटियों के रंग और छटा के बीच में वे अपने को सम्मोहित सा अनुभव करते थे। उन्हें ऐसा लगता था कि जैसे इन सबसे उनका पूर्व जन्म का कोई रिश्ता हो। उन्हें जब कभी भी दूर पर्वतों और घने वनों के मध्य जाने का अवसर मिलता है तो उन्हें ऐसी अनुभूति आज भी सहज होती है। 

वह अपनी कृतियों के माध्यम से ’प्रकृति’ का महत्व दिखाना चाहते हैं जहाँ किसी प्रकार का भेदभाव नहीं है। उसके लिए मनुष्य ही नहीं, सृष्टि के सभी जीव बराबर हैं फिर भी हम उसे नष्ट कर देने पर आमादा हैं और उस कुदरत की खूबसूरत दुनिया को तबाह कर देना चाहते हैं। 

अतः एक चित्रकार होने के नाते वह अपनी कृतियों में इन्हीं भावनाओं, मनःस्थितियों और अपने अंतद्र्वन्द को अभिव्यक्त करते हैं। कैनवस पर प्रकृति की आभा को उतारने वाले रंग उनके इस कार्य में मददगार होते हैं। लाल, हरा, पीला, नीला, बैंगनी, मटमैले तथा भूरे रंगों में प्रकृति के वास्तविक संसार को उसकी जीवतंता में रख कर वह मनुष्यों द्वारा उसके अतिक्रमण के प्रयत्नों को एक ऐसी संरचना में उभारने का यत्न करते हैं कि उसमें एक ऐसा अर्थ उभरकर सामने आये जो दर्शक को बेचैन करे, उसे भीतर से झकझोरे। प्रकृति के साथ हमारे रिश्तेे का सही शक्ल क्या हो, उनके ’चित्र’ उसे बताने की कोशिश में बने और रचे गये हैं। उनके चित्रों के ऑब्जेक्ट (Object) के मध्य अन्तराल का सृजन आज की भागमभाग में मनुष्य की भीतरी शक्ति को जगाने व शांत प्रभाव छोड़ने में समर्थ है जिसके कारण प्रकृति से प्रेम सम्भव होगा और मानव जीवन को दुःख और अवसादों से भी लड़ने में मदद मिलेगी। उनके चित्रों द्वारा दिये गये संदेशों से यह भाव जागृत होता है कि मनुष्य को अपने सुखों के लिए प्रकृति की दुनिया को बिगाड़ना नहीं चाहिए बल्कि सँवारना चाहिए। 

प्रो. काम्बोज के अनुसार उन्होंने अपना पहला प्रत्यक्ष वाटर कलर लैण्डस्केप वर्ष 1949 में चकराता में बनाया था। बर्फ में तो वहाँ की छटा और भी निराली होती थी। सन् 1952 में बर्फीले लैण्डस्केप पेन्ट करने भी वह चकराता ही गये। उनके वाटर कलर 'स्नों-स्केप्स’ देखकर स्व. प्रो. रणवीर सक्सेना ने भी वहाँ जाने की इच्छा जताई। शीघ्र ही पुनः बर्फ पड़ने पर वे उसी वर्ष फिर से उनके साथ बर्फ से ढके चकराता की पहाड़ियों को पेंट करने गये थे। 

चकराता क्षेत्र के 'जौनसारी’ जीवन और परिवेश ने उन्हें सदैव आकर्षित किया। उन दिनों अपने भव्य मौलिक रूप में इसकी झलक सर्वत्र दिखाई देती थी। सन् 1953 में जाॅनसार के जीवन व प्रकृति के अध्ययन व चित्रण हेतु उन्होंने गाँव-गाँव होते हुए पैदल त्यूनी तक दो सप्ताह तक भ्रमण किया। कभी-कभी उन्हें अन्धेरी रात में मार्ग भटकने पर जंगल के बीचो-बीच आग जलाकर भी रात काटनी पड़ी तो कभी सघन जंगल के बीच से भी गुजरना पड़ा। उन्हीं दिनों इस क्षेत्र में प्रवास और भ्रमण के दौरान उन्हें मानव द्वारा वन सम्पदा के दोहन-प्रक्रिया का भी प्रत्यक्ष अनुभव करने का अवसर मिला। उन्हें तब आभास नहीं था कि वनों के समग्र रूप से उनका अर्द्धशतक पूर्व का साक्षात्कार उनके मानस पटल पर अमिट छाप छोड़ देगा। सन् 1988 में 'राष्ट्रीय ललित कला अकादमी, नई दिल्ली' ने नेहरू जन्म शताब्दी के अवसर पर उन्ह नेहरू को श्रद्धांजली स्वरूप समर्पित 'प्रकृति और पर्यावरण' विषय पर आयोजित राष्ट्रीय प्रदर्शनी के लिए उन्हें दो चित्र भेजने को आमंत्रित किया गया। प्रो. काम्बोज के 35 वर्षों के बाद वनों के अबाध दोहन के प्रत्यक्षदर्शी होने से ऊपजी टीस ने उनकी उक्त प्रदर्शनी हेतु बनी चित्र श्रंखला 'मैन एण्ड नेचर'-1 'मैन एण्ड नेचर'-२ 'मैन एण्ड नेचर'-3 ('मानव व प्रकृति', सन् 1988) को जन्म दिया। वे प्रकृति को यथार्थवादी रूप में 'सामाजिक व्यंग्य' के संदर्भ में अपने चित्रों में तो पहले से ही प्रयोग कर रहे थे परन्तु इस प्रदर्शनी ने उन्हें वनों के दोहन के संदर्भ में 'प्रकृति और पर्यावरण' पर कार्य करने का अवसर, नई प्रेरणा और दिशा भी प्रदान की जो 'रियूनियम आईलैण्ड' (विदेश) में भेजी जाने वाली पाँच समसामयिक भारतीय कलाकारों की प्रदर्शनी हेतु बनायी नई श्रृंखला 'नेचर स्केप- 3 'नेचर स्केप- 4' 'नेचर स्केप- 5' (सन् 1990) का आधार बनी। उनके चित्रों में समय के साथ-साथ बिम्ब-विधान और संयोजनात्मक तत्वों में नव प्रयोग तो होते रहे परन्तु वन सम्पदा का विनाशकारी मानवीय दोहन आज भी उनके मन को कचोटता रहता है और प्रत्यक्ष या परोक्ष उनकी अभिव्यक्ति का सामाजिक संदर्भ सहज ही बन जाता है, शायद 'परम प्रकृति' का यही विधान है। अस्तु- "प्रकृति कियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः" (गीता)


लेखिका : डाॅ. एस. वर्मा
असिस्टेन्ट प्रोफ़ेसर 
चन्द्रकान्ति रमावती देेवी आर्य महिला पी. जी. काॅलेज, 
गोरखपुर।




  डाॅ. एस. वर्मा (जन्म: गोरखपुर, 1982) चित्रकला विषय में स्नातकोत्तर (2005) हैं, और इसी विषय की अध्यापिका भी। इनकी शिक्षा दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्विद्यालय से हुई, जहां से इन्होंने प्रो. भारत भूषण के निदेशन में अपनी पी.एच-डी उपाधि (2017) हासिल की। विषय था -"कलाकार, शिक्षाविद एवं कला प्रशासक प्रो. बी.पी. काम्बोज - एक समीक्षात्मक अध्ययन।

    इस निमित्त वे देहरादून गयीं, काम्बोज जी से मिलीं। बातों को आगे बढ़ाते हुए वे बताती हैं कि - 'काम्बोज सर के व्यक्तित्व और कृतित्व से मैं बहुत प्रभावित हुई। उनके पितृवत स्नेह और सहयोग के कारण ही मैं अपना शोध कार्य सहजता से पूरा कर सकीं।'

    डाॅ. वर्मा अनेक राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय सेमिनार में हिस्सेदारी करती रही हैं। अनेक वेबीनार में शामिल रही हैं।संप्रति आप चन्द्र कांति रमादेवी आर्य महिला पीजी कालेज, गोरखपुर के चित्रकला विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। 

  प्रो. काम्बोज (15.8.1928-11.10.2018) की दूसरी पुण्यतिथि पर भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए 'कलावृत्त' के लिए डाॅ. वर्मा ने यह लेख एक दिन के आग्रह पर लिख भेजा है, धन्यवाद डाॅ. वर्मा .....।

-अखिलेश निगम

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