ज्यामितीय रूपाकारों के रचेयता - मोहन शर्मा
नाथद्वारा की आध्यात्मिक भूमि पर जन्मे मोहन शर्मा को बाल्यकाल से ही रंगों और कुंचियों से खेलने का अवसर प्राप्त हुआ। पिता नाथद्वारा की पारंपरिक कला के धनी थे अतः प्रारम्भ से ही आप कला संसार में विचरते रहे। प्रारम्भ में आपका मेडिकल में जाने का विचार था किंतु लम्बी बीमारी से प्रथम वर्ष विज्ञान में ही आपको पढ़ाई छोड़नी पड़ी। इसी समय आपको यह अनुभव हुआ कि कला ही उनको जीवन आधार दे सकेगी और उनकी कोमल भावनाओं की अभिव्यक्ति में सहचरी बन सकेगी। परिवार के कलात्मक वातावरण व नाथद्वारा के पारंपरिक कला परिवेश से ओत-प्रोत उनका मन कलाकार बनने को छटपटाने लगा। उनके बड़े भ्राता ने उन्हें जब जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट में प्रवेश दिलवाया तो वहाँ के परिवेश से उन्हें अनुभव हुआ कि वे सही स्थान पर आ गए हैं। वे पूर्ण उत्साह से अध्यन में लग गए। इनके शिक्षकों ने इनमें जब कलाकार की विशेष प्रतिभा देखी तो इन्हें प्रोत्साहित किया। इसी दौरान जे.जे. के प्राचार्य पलसीकर ने इनका संपर्क प्रसिद्ध कलाकार एफ.एन. सूजा से करवाया। सूजा ने अपने कुछ चित्रों के सृजन में इनका सहयोग लिया और इनकी तकनीकी कौशल की भूरी-भूरी प्रसंशा की। वे चित्र "सूजा कलम" के नाम से प्रदर्शित हुए। सूजा के संपर्क से इनमें नया विश्वास जागा और ये आधुनिक कला के विभिन्न आयामों से परिचित हुए।
1965-66 के वर्ष उनके लिए नई उमंग व उत्साह लेकर आये। 1965 में जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट से वे विशेष योग्यता से उत्तीर्ण हुए। इसी वर्ष उन्हें क्रमशः (डोलि करसत कस र्स्ट) जीत अवार्ड व महाराष्ट्र स्टेट अवार्ड प्राप्त हुआ। 1966 एक वर्ष के लिए इन्हें जे.जे. का फैलो चुना गया तथा राजस्थान ललित कला अकादमी से पुरुस्कृत हुए। इसी वर्ष बोम्बे आर्ट सोसायटी, नेशनल प्रदर्शनी दिल्ली व फाइन आर्ट सोसायटी बम्बई में चित्र प्रदर्शित हुए। इस प्रकार यह समय इनके कलाकार जीवन का "स्टेपिंग स्टोन "कहा जा सकता है। जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट, बोम्बे के शिक्षण से इन्हें पलसीकर, ढोंड जैसे कला गुरुओं से चित्र, पोर्ट्रेट व दृश्य चित्रण की तकनीकी कुशलताओं को गहराई से अध्ययन करने का अवसर प्राप्त हुआ। पिता की राजस्थानी पारंपरिक लघु चित्र शैली की सिद्ध हस्त कलम व जे.जे. की पोर्ट्रेट एवं दृश्य चित्रण की परम्परा ने इनके चित्रों को दृढ़ आधार भूमि प्रदान की। यही कारण था कि इनके चित्रों में काल्पनिक रूपाकार भी स्पष्ट व मुखरित होते गए। चित्र संयोजन के साथ दृश्य चित्रण व पोर्ट्रेट भी इनके सदा प्रिय विषय रहे जिससे इनके चित्रों में रंग की विविधता व माधुर्य सदा बना रहा व प्रकृति से इन्हें प्रेरणा मिलती रही।
1967 में "हिज होली हाईनेस" नाथद्वारा के लाइफ पोर्ट्रेट के कमीशन ने इन्हें नई ख्याति प्रदान की और इन्होंने गांधी, नेहरू, सरदार पटेल, राधाकृष्णन, अब्राहम लिंकन, लाल बहादुर शास्त्री आदि विभूतियों के अनेक लाइफ पोर्ट्रेट बनाए।
1968 में राजस्थान स्कूल ऑफ आर्ट, जयपुर में आपकी व्याख्याता पद पर नियुक्ति हुई जिससे इनके जीवन में स्थायित्व आया और ये कला की सेवा में लग गए। शिक्षण में इन्होनें विशेष रुचि की और विद्यार्थियों को पोर्ट्रेट, दृश्य-चित्रण व संयोजन की बारीकियों से अवगत कराया और उनकी सृजनात्मक कुशलताओं को विकसित करने के लिए प्रेरित किया। राजस्थान स्कूल ऑफ आर्ट को फिर से गरिमा प्रदान करने में आपका विशेष योगदान रहा। राजस्थान में कला शिक्षा को नई प्रणाली से जोड़ने में आपने अथक प्रयत्न किए और अपने सहयोगियों के सहयोग से राजस्थान स्कूल ऑफ आर्ट ललित कला में स्नातक व स्नातकोत्तर नई शिक्षा प्रणाली से आरम्भ करवाने में सफलता प्राप्त की। 20 वर्ष तक शिक्षक रह कर समर्पित भाव से सदा सृजनरत रहकर कला जगत में नये आयाम उजागर किये।
आधुनिक नगर बम्बई की भव्य इमारतें, छोटी-बड़ी गालियां, पुल, समुद्र के किनारे व चौड़ी सड़कों ने उनके मन पर स्थायी प्रभाव छोड़ा। जयपुर में जंतर-मंतर, ऐतिहासिक इमारतें चौड़ी सड़कें तथा गालियां, लंदन प्रवास में भी दर्शनीय उच्च अटालिकाएँ, एक दूसरे की जोड़ते बड़े पुल, नदियां, चर्च, जल पर थिरकती प्रकाश की किरणें उनको आकर्षित करती रहीं। यही विषय इनके बनाएं चित्रों में प्रतिबिम्बित होते रहे।
1970 में "कॉस्मिक क्रिस्टल्स श्रृंखला प्रदर्शनी" आइफेक्स दिल्ली में इनकी प्रथम प्रदर्शनी थी। इस श्रृंखला के चित्र स्थापत्य गलियारों से झांकते दरवाजों का बाहुल्य लिए थे। स्टील लाइफ में टेबल पर रखे जार, कप-प्लेट, खिड़की से आती रोशनी से प्रकाशित थे। स्टील लाइफ इनका प्रिय विषय रहा और आखिर तक वे इसे चित्रित करते रहे। 1970, 71 में हुई (दिल्ली, जयपुर) इनकी कोसमिक क्रिस्टल" श्रृंखला ने चित्रों के ज्यामितिय धनवादी स्थापत्य के मधुर सुकोमल रंगों की तकनीकी कौशल व संयोजन की दक्षता ने सभी को प्रभावित किया।
1972 के आसपास इन्होंने पेलेट नाइफ द्वारा मोटे रंगों की परतों का भी चित्रों में प्रयोग किया जो कि गहरी, आकृतियों के मध्य से प्रकाशित होती उभरती है। किन्तु मोटे रंगों की परतों का प्रयोग स्थायी नहीं रहा। वे सदा रंगों की पतली, परतों का प्रयोग कैनवास के मनमोहक पोत (टेक्सचर) के अहसास को प्रतिबिंबित करने के लिए करते रहे। 73 - 74 में इनकी एकल प्रदर्शनी के कैटलॉग पर छपे व अन्य चित्रों के ज्यामितिय आकर रहस्यमय निरवता को बढ़ते हैं। उनमें प्रकाशित प्रकाश से भरे गलियारें व स्टील लाइफ के बर्तन भी ग्रीष्मावकाश की दोपहर की भांति "टाइमलेसनेस" का प्रभाव सृजन करते हैं। लगता है समय ठहर गया है। इन्होनें अपने चित्रों में चाहे वे खिड़की के पास रखी स्टील लाइफ हो या दरवाजें खिड़कियों, गलियारों से युक्त स्थापत्य की श्रृंखला सभी में आकारों के चित्र फलक को अनेक हार्डऐज ज्यामितिय छोटे-बड़े आकारों में विभाजित किया जिन्होंने लीनियर प्रभाव, रंगों का सांमजस्य एवं छाया प्रकाश का विशिष्ट प्रयोग एक सूत्र में बांधता है।
इन्होनें तैल व एक्रीलिक माध्यम को अच्छी तरह समझा और जीवन पर्यन्त अपने आधुनिक प्रयोगों की मूर्त-अमूर्त रचनाओं में माध्यम की ताजगी व आकर्षण को सदैव बनाए रखा।
शर्मा के कुछ चित्रों में नीले, हरे, भूरे, स्टलेटी रंगों का प्रयोग सुरीयलिस्टिक कलाकारों की भांति रहस्यमय, निरवता व हंटिंग स्पेस सृजन करता है। कुछ एक चित्रों में प्रकाशित ज्यामितिय आकर भी इस एकाकीपन व खालीपन के अहसास को बढ़ाते ही है।
ब्रिटिश छात्रवृत्ति में लन्दन प्रवास के समय कहीं चित्रों में बने लाल सेव, लन्दन में प्रदर्शित गैलरी आर्ट्स 38 द्वारा कलाकारों की समूह प्रदर्शनी में प्रदर्शित। इन्टीरियर में सफेद के साथ लाल, नारंगी रंग इन्हें इस खालीपन से उबारते हैं। लन्दन में ही इनके अन्य प्रदर्शित नोम्रदाम, स्टील लाइफ, हाउस ऑफ पार्लियामेंट, रिफ्लेक्शन आदि चित्रों में रूपाकारों के प्रकाश से उद्भाषित रंगाकार उनके प्रफुलित मन को अभिव्यक्त करते हैं। लगता है लन्दन में बिताया समय उनके चर्मोत्कर्ष का था।
भारत आने के बाद के चित्रों को भी देखे तो शहर, में, बाहर अंदर, गलियों में अन्तः कक्षों, पुलों, मैदानों में गहरे रंगों से छितराती प्रकाशीय आकृतियों की विविधता विराट चाक्षुक प्रभाव लिए है। इनके मन के खालीपन से उबरने के प्रयास चित्र में कम ज्यादा फैली प्रकाशयुक्त ज्यामितिय थी जिसका प्रयोग वे जीवन भर करते रहे। 185-86 में रची इनकी "डेजर्ट" श्रृंखला इस जगत की विरक्तता का अहसास कराती है। लगता है वे इस जगत की कटुता, खालीपन से जीवनभर लड़ते रहे किन्तु दर्शकों को सदा रंगों की लयात्मकता मधुरता व सौन्दर्य दिया।
1985 में बनाया 15 x 12 का वृहद कैनवास छाया प्रकाश की परतों से उभरता एक अदभुत संयोजन था जिसकी गहराई व विशालता सभी के आकर्षण का केन्द्र बनी। इनके द्वारा की गई पैन व इंक की वृहद रेखांकनों की संख्या अपना अलग अस्तित्व रखती है लयात्मक महीन रेखाओं द्वारा किये विविध रेखांकन इनके चित्रों की आधारभूमि थी जिसने इनके चित्रों को नियमबद्धता, दृढ़ता व आकर्षण दिया।
सरलीकृत मूर्त-अमूर्त उज्जवल चित्र फलक व ज्यामितीय रूपाकारों के लिए प्रसिद्ध श्री मोहन शर्मा राजस्थान के अग्रणी आधुनिक चित्रकारों की पंक्ति में आते है। इन्होंने राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चित्र प्रदर्शित कर अपनी विशिष्ट पहचान बनाई। प्रकृति व काल्पनिक रूपाकारों से बुने शर्मा के चित्र पटल हमें आयातकार, गोलाकार, त्रिकोणात्मक व अन्य ज्यामितीय आकारों के इंद्रधनुषी रंगों द्वारा बिम्बों के आकर्षक संसार में ले जाते हैं। इनके चित्र स्पटिक की भांति आकर्षक व ताजगी देने वाले हैं। इनके चित्रों में मानव से अधिक मानवरचित वस्तुओ से प्रेम था। खिड़की, दरवाजे, मकान, दीवारें, गालियां, अन्तः कक्ष (इंटीरियर) पुल, पानी में झिलमिलाते प्रतिबिम्ब, टेबल पर रखी पुस्तकें, पुष्प, फल, बर्तन व छाया प्रकाश की अठखेलियां इनके प्रिय विषय रहे।
प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप, राजस्थान के संस्थापक सदस्य व अध्यक्ष मोहन शर्मा राजस्थान ललित कला अकादमी की कार्यकारिणी के सक्रिय सदस्य रहे। आइफेक्स, राष्ट्रीय ललित कला अकादमी व राजस्थान ललित कला अकादमी से पुरुस्कृत मोहन शर्मा को राजस्थान ललित कला अकादमी ने मार्च 1988 में कलाविद सम्मान से सम्मानित लिया। जीवन के अंतिम वर्ष बीमारी से झुझते 25 जून, 1988 को वे कला जगत में अपनी कृतियों की अमिट छाप छोड़ जीवन की अंतिम यात्रा पर चले गए।
15 लखनपुरी, दुर्गापुरा कृषि फार्म के पास,
जयपुर 302018
मोबाइल नं. 98871 17561
श्रद्धेय मोहन शर्मा जी के कृतित्व का सांगोपांग विवेचन!नई पीढ़ी के लोगों के लिए जरूरी पठन सामग्री।
ReplyDeleteरामकिशन अडिग
आभार एवं धन्यवाद ... रामकिशन अडिग जी
Delete