उत्तरप्रदेश का रहस्यमय कालिंजर दुर्ग : कुलदीप भार्गव
भारतवर्ष की स्थापत्यकला प्राचीनकाल से ही उन्नत रही है। आज भी प्राचीन भारत की सहस्त्रों संरचनाएं हमें हैरत में डाल देती हैं। इन संरचनाओं की विशालता और भव्यता देखकर आज के इंजीनियर भी दाँतों तले अंगुली दबाने को विवश हो जाते हैं।
वास्तव में अभी तक हम हमारे प्राचीन समृद्ध स्थापत्यकला से लगभग अनभिज्ञ ही हैं। हमारा राजस्थान तो इन समृद्ध दुर्ग और महलों का खजाना है। दुर्भाग्य बस यह है कि हमारी शिक्षा में इन प्राचीन खजानों को लगभग भुला दिया गया है।
इन रचनाओं में से एक भव्य स्थापत्य है कालिंजर दुर्ग जो उत्तरप्रदेश के बाँदा जिले में स्थित है। इसे भारत के सबसे विशाल और अपराजेय दुर्गों में गिना जाता है।
प्राचीन काल में यह दुर्ग जेजाकभुक्ति (जयशक्ति चन्देल) साम्राज्य के अधीन था। बाद में यह दसवीं शताब्दी तक चन्देल राजपूतों के अधीन और फिर रीवा के सोलंकियों के अधीन रहा। इन राजाओं के शासनकाल में कालिंजर पर महमूद गजनवी, कुतुबुद्दीन ऐबक, शेर शाह सूरी और हुमांयू आदि ने आक्रमण किए लेकिन इस पर विजय पाने में असफल रहे। कालिंजर विजय अभियान में ही तोप के गोला लगने से शेरशाह की मृत्यु हो गई थी। मुगल शासनकाल में बादशाह अकबर ने इस पर अधिकार किया। इसके बाद इसपर राजा छत्रसाल ने अधिकार कर लिया। बाद में यह अंग्रेज़ों के नियंत्रण में आ गया। भारत के स्वतंत्रता के पश्चात इसकी पहचान एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक धरोहर के रूप में की गयी है। वर्तमान में यह दुर्ग भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग के अधिकार एवं अनुरक्षण में है।
यह दुर्ग एवं इसके नीचे तलहटी में बसा कस्बा, दोनों ही महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक धरोहर हैं। यहाँ कई प्राचीन मन्दिरों के अवशेष, मूर्तियां, शिलालेख एवं गुफाएं, आदि मौजूद हैं। इस दुर्ग में कोटि तीर्थ के निकट लगभग 20 हजार वर्ष पुरानी शंख लिपि स्थित है जिसमें रामायण काल में वनवास के समय भगवान राम के कालिंजर आगमन का उल्लेख किया गया है। इसके अनुसार श्रीराम, सीता कुण्ड के पास सीता सेज में ठहरे थे।
नीलकंठ मंदिर
किले के पश्चिमी भाग में कालिंजर के अधिष्ठाता देवता नीलकण्ठ महादेव का एक प्राचीन मन्दिर भी स्थापित है। इस मन्दिर को जाने के लिए दो द्वारों से होकर जाते हैं। रास्ते में अनेक गुफाएँ तथा चट्टानों को काट कर बनाई शिल्पाकृतियाँ बनायी गई हैं। वास्तुशिल्प की दृष्टि से यह मंडप चंदेल शासकों की अनोखी कृति है। मन्दिर के प्रवेशद्वार पर परिमाद्र देव नामक चंदेल शासक रचित शिवस्तुति है व अंदर एक स्वयंभू शिवलिंग स्थापित है। मन्दिर के ऊपर ही जल का एक प्राकृतिक स्रोत है, जो कभी सूखता नहीं है। इस स्रोत से शिवलिंग का अभिषेक निरंतर प्राकृतिक तरीके से होता रहता है।
किले के पश्चिमी भाग में कालिंजर के अधिष्ठाता देवता नीलकण्ठ महादेव का एक प्राचीन मन्दिर भी स्थापित है। इस मन्दिर को जाने के लिए दो द्वारों से होकर जाते हैं। रास्ते में अनेक गुफाएँ तथा चट्टानों को काट कर बनाई शिल्पाकृतियाँ बनायी गई हैं। वास्तुशिल्प की दृष्टि से यह मंडप चंदेल शासकों की अनोखी कृति है। मन्दिर के प्रवेशद्वार पर परिमाद्र देव नामक चंदेल शासक रचित शिवस्तुति है व अंदर एक स्वयंभू शिवलिंग स्थापित है। मन्दिर के ऊपर ही जल का एक प्राकृतिक स्रोत है, जो कभी सूखता नहीं है। इस स्रोत से शिवलिंग का अभिषेक निरंतर प्राकृतिक तरीके से होता रहता है।
वास्तव में कालिंजर दुर्ग भारतीय स्थापत्य कला का एक शानदार नमूना है और स्थापत्यप्रेमियों के लिए बहुत ही रमणीक स्थल है।
बेहद उत्कृष्ट कलिंजर दुर्ग।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर.. क्या बता हैं
ReplyDeleteबहुत खूब कुलदीप जी...
ReplyDeleteBahut sundar sir 🙏
ReplyDelete🌿बहुत खूब कुलदीप भाई।।हमारे इतिहास की सही जानकारी का अभाव ही हमें हमारे वैभव से विमुख कर रहा है।कालिंजर दुर्ग भी उन्हीं में से एक है जिनके बारे में बहुत कम ही लोग जानते हैं।।आपके आलेख बहुत कुछ रोशनी डालता है।।
ReplyDeleteआपने बहुत आवश्यक जानकारी से अवगत कराया गुरुदेव।।।
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद गुरुदेव 🙏🙏🙏
शानदार!
ReplyDeleteआपकी बात सही है शिक्षा में स्थापत्य कला का वर्णन इतना नही है। हम खुद ही भुलाए जा रहे हैं ।
लेख के लिए आपको बधाई ।