पुरास्मारकों का संरक्षण-हमारी सांस्कृतिक आस्था : अब्दुल लतीफ उस्ता
राजस्थान में प्रसिद्ध पुरास्मारकों को सांस्कृतिक एवं पर्यटन की दृष्टि से महत्व दिये जाने की सशक्त और समृद्ध परम्परा रही है, जो सांस्कृतिक गौरव के लिए प्रासंगिक भी है और आर्थिक विकास के लिए महत्वपूर्ण भी, लेकिन इसके साथ-साथ हमारे यहाँ हर गाँव, कस्बे में ऐसे कई स्मारक हैं, जो संभव है कि कम ऐतिहासिक महत्व रखे, किन्तु फिर भी नई पीढियों के लिए एक प्रेरणा व आईडिया जनरेशन की परम्परा को दर्शाने के सफल प्रयास करते नजर आते हैं। यह स्मारक गढ़ियों, छतरियों, हवेलियों, मन्दिरों, मठों, दरगाहों, थानों, डाक-बंगलों और सरायों के रूप में हो सकते हैं। ये न केवल भौतिक संरचनाएँ हैं बल्कि क्षेत्र की समृद्ध सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत के प्रतीक हैं और जनमानस उन्हें शक्ति, सौंदर्य, और सहनशीलता के मानकों के रूप में देखता है|
प्रदेश के विभिन्न स्मारकों के संरक्षण, पुनरूद्धार के लिए भिन्न-भिन्न स्तरों व कार्य-क्षमताओं से सार्थक एवं प्रशंसनीय प्रयास किये जाते रहे है। लेकिन जनचेतना, सूचना के लोकतंत्रीकरण एवं विकसित सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स की बुनियाद पर, हमारे स्मारकों (कम जाने–पहचाने भी) के संरक्षण एवं विकास के लिए आमजन को भी अपना सहयोग देना होगा। यहां एक बात और स्पष्ट है कि किसी भी स्मारक का संरक्षण उसकी ’’स्ट्रक्चरल इंटिग्रीटी’’ के लिहाज से तो जरूरी है ही लेकिन उसके साथ-साथ पर्यटन, रोजगारपरक गतिविधियों व सांस्कृतिक-समागम से आस-पास के परिवेश में सकारात्मक माहौल भी गढ़ता है।
अब सवाल यह उठता है कि इस कार्य में आमजन की सहभागिता कैसे प्राप्त की जाये? उनमें ’’सांस्कृतिक आस्था’’ को कैसे विकसित किया जाये? जरूरत इस बात की है कि सम्बंधित क्षेत्र विशेष के स्मारकों व व्यक्तियों के समूह या समुदाय में एक भावनात्मक सम्बन्ध पैदा हो और उन्हें स्थानीय समूह के जीविकोपार्जन से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जोड़ दिया जाये तो स्मारक के बचाव, संरक्षण एवं विकास की सम्भावनाएँ बढ़ जाती है। सबसे पहले सम्बंधित स्मारक के आस-पास रहने वाली आबादी को उस स्मारक की यू.एस.पी., खूबियों, उससे सम्बन्धित कहानियों को नुक्कड़ नाटकों, लोक गीतों, प्रदर्शनियों जैसे कैम्पेनिंग के साधनों और क्रॉस-रेफेरेंसिंग के माध्यम से रू-ब-रू करवा कर उनके प्रति ’’ऐप्रिसियेशन-एफिलियेशन’’ का भाव जगाया जाये।
चाकर ठाडे बैठया बैठया काटे उमर तमाम।
कुण सू मुजरा करे हवेलियां, बरसा मिले न राम,
बाटडली जोवे आवन री गौखे बैठी शाम।।
विभिन्न न्यू मीडिया संसाधन जैसे सॉफ्टवेयर्स, ऐप्स्, सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स, ब्लॉग्स् आदि भी इस दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। अफ्रीका में घाना देश के छोटे से शहर केप कोस्ट में एक रंगमंच संस्था ने नाटकों व क्षेत्रीय कठपुतली कला के माध्यम से स्कूलों एवं चर्चों में स्मारकों के प्रति चेतनापरक प्रस्तुतियां कर, स्थानीय नागरिकों में आस-पास के स्मारकों के संरक्षण के लिए प्रयास किये और यही वजह रही कि उस क्षेत्र के कई पुरास्मारक, जनसहभागिता से संरक्षित कर दिये गये।
स्मारक के बचाव व संरक्षण के लिए उसके आस-पास की आबादी के लोगों को स्किल डवलपमेन्ट कार्यक्रम के अन्तर्गत, इनके संरक्षण की तकनीकी में प्रशिक्षित किया जाना आवश्यक है। उपलब्ध क्षेत्रीय संसाधनों व लोक ज्ञान का प्रयोग भी इस मिशन के लिए महत्वपूर्ण साबित हो सकता है। ’’लर्न फ्रोम ट्रेडिशन, अप्लाई टू कन्जर्व’’ के सिद्धान्त पर परम्परागत कारीगरों, संरक्षकों के ज्ञान का भी सटीक उपयोग पुरास्मारकों के बचाव एवं संरक्षण हेतु किया जाता रहा है, जिसे और प्रभावी बनाने की दरकार है। मोरक्को की दरा घाटी के छोटे से गाँव में मिट्टी से बने कई पुराने स्मारकों और आर्किटेक्चरल स्ट्रक्चर्स का पुनरूद्धार स्थानीय कारीगरों द्वारा सीमित वितीय संसाधनों में किया गया है।
यह भी महत्वपूर्ण है कि विरासत का वही रूप दीर्घजीवी होता है जो कि समय के साथ-साथ कुछ बदलावों को स्वीकार कर लेता है। पुरास्मारकों को वर्तमान सन्दर्भों के अनुसार परिवर्द्धित किया जाना और उन्हें सेल्फ- सस्टेनिंग बनाना, आज की सबसे बड़ी जरुरत है। मिसाल के तौर पर, राजस्थान के सन्दर्भ में यह कहना गलत नहीं होगा कि पुराने बसे सभी शहरों के अंदरूनी हिस्से किसी ओपन म्यूजियम से कम नहीं है, जरुरत उन्हें सटीक एवं प्रभावी ढंग से प्रस्तुत करने की है। इसी प्रकार राजस्थान में कुएं, बावड़ियाँ प्राचीन समय से बनाई जाती रही है, यदि इन वाटर बॉडिज का प्रयोग जल सम्बन्धी लघु उद्योगों जैसे-फिश फार्मिंग, पर्ल / मूँगा प्रोसेसिंग आदि के लिए कर क्षेत्र के रहवासियों के लिए रोजगार के अवसर प्रदान किये जा सकते हैं। इसी प्रकार यदि किसी भी गाँव के किसी स्मारक को सांस्कृतिक केन्द्र के रूप में स्थापित कर दिया जाये तो विरासत के सभी रूप संरक्षित एवं विकसित हो सकते हैं।
ऐसे ही कुछ प्रयासों से आम जन की सहभागिता से ही कम जाने पहचाने स्मारकों का बचाव एवं संरक्षण कर पर्यटकों, शोधार्थियों आदि के लिए सुलभ बनाया जा सकता है और रोजगार एवं राजस्व की असीम सम्भावनाएँ विकसित की जा सकती है।
नोट: यह आलेख पूर्व में "दैनिक सच बेधड़क" समाचार पत्र में भी प्रकाशित हो चुका है।
अब्दुल लतीफ उस्ता
कला एवं विरासत विशेषज्ञ
ईमेल : alusta1980@yahoo.co.in
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