कला के मौन साधक एवं राजस्थान में भित्ति चित्रण पद्धति आरायश के उन्नायक प्रोफेसर देवकीनंदन शर्मा (भाग-08)

मिट्टी, पत्थर, खनिज रंग, बिना तेल गोंद अंण्डे या अन्य किसी माध्यम के पानी घोलकर लगाए जाते है, पहले रंगों को घोटकर व पानी में निथार कर वह छानकर साफ कर लेते है, फिर उसको अपनी आवश्यकता अनुसार सुखाकर रख लेते हैं। चित्र भरते समय रंग पानी में घोलकर पतला आलेप किया जाता है। सोने का वर्क भी सुनहरे रंग हेतु प्रयोग में लिया जाता है, जिसके प्रयोग से चित्र सुशोभित हो जाता है। कुछ लोग रंगों में गोंद मिलाकर भी काम में लेते हैं पर उससे चित्र में रंग पपड़ी बनकर निकलने का खतरा रहता है और उसमें से वैसी चमक व ताजगी नहीं आती जैसी बिना गोंद के पानी में मिलायें रंगों में आती है। रंग लगाने के उपरांत नहले से पीटने के पश्चात रंगों की तह गीली दीवार में अंदर तक चली जाती है और अकीक से पॉलिश करने के बाद उस में विशेष चमक व लुनाई आ जाती है। सूखने पर इस पर पानी का भी कोई असर नहीं होता मिटटी पत्थर व खनिज रंगों में स्थायित्व होता है। अन्य रंगों में नहीं, इसलिए उनका प्रयोग नहीं करते। चूना अन्य रंगों को खा जाता है।वे धुंधले पड़ जाते है, या बदल जाते हैं। पानी में घुले रंग पतली परत होने से नहले द्वारा पीटने पर दीवारों में अंदर तक प्रवेश कर जाते हैं व सूखने पर दीवार का ही अंग बन जाते हैं। 

पूर्ण चित्र बन जाने पर उस पर खोपरे के सफेद को पत्थर पर घिसकर दोनों हथेली पर आपस में रगड़ते हैं जिससे हाथों में तेल रह जाता है। हथेली पर लगे तेल को चित्र पर छापते हैं, पूर्ण चित्र पर तेल लग जाने पर घोटी से हल्के-हल्के घोटते हैं जिससे चित्र पर लगे रंग और अधिक स्थाई हो जाते है, और उन पर विशेष आब आ जाती है। पूर्ण कार्य की समझ प्रायोगिक रूप में अनुभव से विकसित होती है। तभी आरायश कार्य से संवाद स्थापित होता है। और हम उस पर बदलते हुए प्रभावों को समझकर पद्धति को समझ सकते हैं। मसाले का अनुपात चूने की क्वालिटी के अनुसार बदल सकता है। उसके अनुसार हमें मसाले का अनुपात भी देखना होता है और लकड़ी व बटकड़े को व झावे को सतह की आवश्यकता अनुसार प्रयोग में लाते हैं। जयपुर के कारीगर भित्ति चित्र बनाने के लिए दीवार विशेष रूप से तैयार करते थे। 
प्राचीन समय में इस कार्य के निपुण कारीगर जयपुर व अन्य रियासतों में मिलते थे। जिन्होंने देश के विभिन्न स्थानों पर भी इस प्रणाली में कार्य किया है। जयपुर के अतिरिक्त अन्य रियासतों के जागीरदार भी अच्छे कारीगरों को प्रशय देते थे। इस माध्यम द्वारा बनाए चित्र में देश के विभिन्न मंदिरों, भवनों, धार्मिक स्थलों, राजमहलों, हवेलियों आदि में देख सकते हैं। साधारण आरायश उस पर फूल पत्तियां और बेल-बूंटों का कार्य तो जयपुर में काफी प्रचलित था। जयपुर की प्राचीन राजधानी आमेर के महलों में, जयपुर सिटी पैलेस में, मंदिरों में, महाराजाओं की छतरियों में, नाहरगढ़ व गलता के विभिन्न मंदिरों में, निजी हवेलियों में इस पद्धति का बहुत अच्छा कार्य हुआ है। आरायश पर चित्र बनाने से पूर्व पूर्ण कार्य की योजना बनाना आवश्यक है क्योंकि यह कार्य गीली दीवार पर होता है। इसलिए जितना कार्य एक दिन में पूर्ण किया जा सके उतना ही कार्य आरंभ करना चाहिए। बड़ा चित्र हो तो उसको कार्य के अनुरूप कई दिनों में बांट लिया जाना चाहिए। अलग-अलग दिन में किए गए कार्य को जोड़ मालूम नहीं हो। ऐसी निपुणता व तकनीकी समझ इस कार्य में होनी चाहिए। संयोजन भी उसी तरह बनाना चाहिए। इस तकनीक के विशेषज्ञ प्रोफेसर देवकीनंदन शर्मा द्वारा ढोला मारु का जयपुर रेलवे स्टेशन पर बनाया गया चित्र तथा कृपाल सिंह जी द्वारा राजपूताना शेरेटन होटल में बनाया चित्र इसका उदाहरण है। 

राजस्थान में बुनो सेको पद्धति से व साधारण दीवारों पर टेंपल पद्धति से चित्र बनाने की पुरानी परंपरा रही है। राजस्थानी फ्रेस्को  की विधि दो विधि प्रचलित है। बुनो फ्रेस्को में गीले चूने के प्लास्टर पर ही कार्य किया जाता है और पानी व रंग को मिलाकर प्रयोग करते हैं। इसमें किसी माध्यम का प्रयोग नहीं होता, पर गीली दीवार पर पहले रंगों को लगाने के उपरांत नहले से पीटने के बाद अकीक पत्थर से पॉलिश करने से चूने की सतह के अंदर तक जाकर रंग एकाकार हो जाते है। इसलिए इनका स्थायीत्व अधिक होता है।

फ्रेस्को सेको में आरायश सूखने के उपरांत कार्य किया जा सकता है। इसके रंगों में गोंद, सरेस व अंडे की जर्दी निकल कर बचे हुए भाग को माध्यम के रूप में प्रयोग में लिया जाता है। इस पद्धति में समय सीमा नहीं रहती, पर बुनो फ्रेस्को से कम स्थायित्व होता है। आरायश पर सेको पद्धति से बनाया कार्य भी साधारण भित्ति पर किए कार्य से अधिक स्थाई होता है। 

प्रोफ़ेसर देवकीनंदन शर्मा ग्रेटर विटोरिया कनाडा में आयोजित
वर्क शॉप में फ्रेस्को का लाइव डेमो देते हुए।

साधारण भित्ति में भी रंगों में गोंद सरेस के माध्यम से कार्य का भी प्रचलन राजस्थान में खूब रहा है किन्तु इस पद्धति में चित्र अधिक स्थाई नहीं होते। 

भित्ति चित्रों को म्यूरल के नाम से भी जानते हैं। आधुनिक स्थापत्य में म्यूरल हेतु रंगों के अतिरिक्त, सिरेमिक टाइल्स, मोजेक, सीमेंट, स्टील, कांच, काष्ठ आदि अनेक माध्यमों का प्रयोग काफी प्रचलित है। पर फ्रेस्को कार्य का अपना मजा है।

लेखक : प्रोफ़ेसर भवानी शंकर शर्मा 
जयपुर

Comments

  1. Thanks for this very useful article about fresco technic of visual art .( Wall painting) .

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